राष्ट्रिय
1968 से भी कम दाम मिलता है किसानों को ।। भू-अधिकार उसी का है जो खेती-मजदूरी करे – बॉबी रमाकांत
पिछले 6 साल से, हर मार्च 29 को दुनिया के अनेक किसान और खेतिहर मजदूर संगठन, एकजुट हो कर भूमिहीन किसान और खेतिहर मजदूर के अधिकारों पर केन्द्रित वैश्विक दिवस मनाते आ रहे हैं. भू-अधिकार न सिर्फ एक बड़ा मुद्दा है बल्कि अनेक दशक बीत जाने के बाद भी, “भू-अधिकार उसी का हो जो खेती-मजदूरी करे” – यह सच नहीं हो पाया है.
महात्मा गाँधी ने इतने साल पहले कहा था कि असल में जो मेहनत करता है, श्रम करता है, तो उत्पाद पर भी उसी का अधिकार होना चाहिए. यदि श्रमिक एकजुट हो जाएँ तो अभूतपूर्व शक्ति होगी. समाजवादी विचारक और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के प्रेरक डॉ राम मनोहर लोहिया ने भी कहा था कि भारतीय समाज में सबसे शोषित हैं भूमिहीन ग्रामीण मजदूर और किसान. डॉ लोहिया ने यहाँ तक कहा था कि आजादी का संघर्ष तब तक पूरा नहीं हो सकता जबतक किसान कल्याण हकीकत नहीं बन जाता. जब 1949 में डॉ लोहिया, हिन्द किसान पंचायत के अध्यक्ष निर्वाचित हुए तो उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि भारत का पुनर्निर्माण करना है तो पहले उसके 5.5 लाख गाँव का पुनर्निर्माण करना होगा. महात्मा गाँधी की तरह डॉ लोहिया भी ग्राम स्वराज्य में विश्वास रखते थे. हर गाँव में, जो असल में श्रम करे और खेत में मजदूरी करे, भू-अधिकार भी उसी का होना चाहिए, अन्य गरीब लोगों को भी भू-स्वामित्व देना होगा – यह सामाजिक न्याय और पुनर्वासन के लिए अहम् है.
डॉ लोहिया ने ‘शहरी विकास’ को आइना दिखाते हुए कहा था कि सरकार ने गाँव को इसलिए नज़रअंदाज़ किया है जिससे शहरों का लाभ हो सके. ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण हुआ है. डॉ लोहिया के कृषि क्रांति का एक प्रमुख बिंदु था: जो असल में खेती-किसानी-मजदूरी करे, भूमि पर स्वामित्व भी उसी का होना चाहिए.
गाँधी जी और लोहिया जी के विचारों के ठीक विपरीत है हकीकत
जो मेहनतकश किसान-मजदूर हैं वह ज़रूरी नहीं है कि भू-स्वामी भी हों. उदाहरण के तौर पर, किसानी में सबसे अधिक श्रम तो महिला करती है परन्तु यदि महिला किसान-मजदूर के भू-अधिकार को देखेंगे तो स्वत: असलियत सामने आ जाएगी. महिला किसान और मजदूर से जुड़े मुद्दे समझे बिना, पित्रात्मक व्यवस्था भी अक्सर नहीं दिखाई पड़ेगी. पंजाब के मनसा के किसान और समाजवादी किसान नेता हरिंदर सिंह मंशाहिया ने सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) से कहा कि 1990 के दशक से लागू हुईं वैश्वीकरण-निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के कारणवश जो भूस्वामी किसान थे उनको तक अपना भू-अधिकार बचाना मुश्किल हो गया है और ज़मीन अक्सर हाथ से चली गयी है.
नेशनल सैंपल सर्वे संस्था (एनएसएसओ) के आंकड़ें देखें तो स्थिति और चिंताजनक है: देश की 60% जनता का सिर्फ 5% भूमि पर अधिकार है जबकि 10% जनता ऐसी है जो 55% भूमि की स्वामी है. एनएसएसओ के 2013 के सर्वेक्षण के अनुसार, 7.18% सबसे प्रभावशाली लोग 46.71% भूमि के स्वामी हैं. 2011 के सामाजिक आर्थिक और जाति सेन्सस के अनुसार, ग्रामीण भारत के 56% लोगों के पास कोई खेतिहर भूमि है ही नहीं.
एशिया के विभिन्न देशों के किसान संगठन (एशियन पीजेंट कोएलिशन), की केआर मंगा (जो फिलीपींस के किसान संगठन से जुड़ीं हैं), और रज़ा मुजीब (जो पाकिस्तान किसान मजदूर तहरीक से जुड़ें हैं) ने बताया कि जब तक कृषि और भोजन से जुड़े उद्योगों का कब्ज़ा नहीं हटेगा तब तक मेहनतकश किसान-मजदूर को भू-अधिकार कैसे मिलेगा? न सिर्फ भू-अधिकार नीतियों को सुधारने की ज़रूरत है, बल्कि ग्रामीण विकास की अवधारणा को ही मूलत: सुधारने की ज़रूरत है जिससे कि किसानी-मजदूरी से जुड़े मुद्दे विकास के केंद्र में हों, न कि हाशिये पर!
फिलीपींस की केआर मंगा ने कहा कि जब मेहनतकश खेतिहर मजदूर और किसान को भू-अधिकार नहीं मिलता तो अनेक प्रकार के सामाजिक अन्याय, भुखमरी, और लाचारी उनको जकड़ लेते हैं.
रेमन मेगसेसे पुरुस्कार से सम्मानित और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि जो किसान-मजदूर कड़ी मेहनत करके हम सबके लिए जीवन-पोषक भोजन पैदा करता है, वह स्वयं ही भू-अधिकार से वंचित है और भोजन-अधिकार के लिए भी संघर्षरत है. जिस तरह से उद्योग ज़मीन पर कब्ज़ा कर रही हैं और किसानी और खेती से जुड़े उत्पाद और प्रक्रिया आदि का उद्योगीकरण कर रही हैं, उसको रोकना बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए.
जीवन के लिए सबसे आवश्यक है भोजन
डॉ संदीप पाण्डेय ने कहा कि जीवन के लिए सबसे आवश्यक तो भोजन है – और जो हमें भोजन उपलब्ध करवाती है (अनाज उगाती है) वह सबसे ज़रूरी कार्य कर रही है. उसूलन तो किसान और खेतिहर मजदूर को सबसे अधिक आय मिलनी चाहिए पर विडंबना यह है कि अधिकाँश को न्यूनतम समर्थन मूल्य तक नहीं मिल रहा है और दूसरी ओर, अमीर की आय पर कोई अधिकतम सीमा निर्धारित ही नहीं है.
किसान-मजदूर इतना अनाज पैदा करता है कि दुनिया के सभी लोग भरपेट खा सकें पर हकीकत यह है कि करोड़ों लोग भूख से जूझ रहे हैं (और दूसरी विडंबना यह है कि अमीर वर्ग मोटापे से जूझ रहा है). 2019 के अंत तक, 69 करोड़ लोग विश्व में भूखे रहे. 2020 में यह सर्व-विदित है कि कोरोना वायरस महामारी के कारणवश हुए तालाबंदी में, अति-आवश्यक सेवाओं में अमीर-गरीब सबके लिए अनाज सर्वप्रथम रहा – पर अनेक लोग (जिनमें आर्थिक-सामाजिक रूप से वंचित समुदाय प्रमुख हैं) दैनिक भोजन अधिकार के लिए तरसते रहे. अक्टूबर 2020 तक विश्व में 70 लाख लोग भूख से मृत हो चुके थे.
सतत विकास के लिए ज़मीन का पुनर्वितरण आवश्यक है
सदियों से भुखमरी और गरीबी का एक बड़ा कारण है कि मेहनतकश मजदूर-किसान भूमिहीन रहे हैं और भू-स्वामी उनका शोषण करते आये हैं (एवं यही भू-स्वामी अमीर वर्ग, अपने हित में आय एवं संसाधनों का ध्रुवीकरण भी करता आया है). जिन मेहनतकश किसान-मजदूर के पास ज़मीन यदि हैं भी, तो कृषि क्षेत्र में निजीकरण और उद्योगीकरण के कारणवश उनकी भूमि पर उनके स्वामित्व पर खतरा मंडरा रहा है. खदान, शहरीकरण और ‘विकास’ के नाम पर भूमि पर कब्ज़ा होता जा रहा है. जो भूमिहीन किसान-मजदूर अपने भू-अधिकार की मांग करते हैं उन्हें अक्सर तमाम प्रकार के शोषण और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है.
भारत में किसान आन्दोलन इस बात का प्रमाण है कि कैसे किसान-मजदूर वर्ग, निजीकरण-वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों के विरोध में रहा है.
अनिल मिश्र, जो सोशलिस्ट किसान सभा के अध्यक्ष हैं और उन्नाव में किसानी करते हैं, ने बताया कि 1968 में 1 किलो गेंहू बेच कर वह 1.75 लीटर डीज़ल खरीद लेते थे, 1.25 क्विंटल गेंहू बेचने से 1 साइकिल आ जाती थी, 1 क्विंटल गेंहू बेचने से 1 क्विंटल सरिया खरीदी जा सकती थी. 1 क्विंटल गेंहू की कीमत, 2350 ईंट के बराबर थी, या 12 सीमेंट की बोरियां आ जाती थीं. 1968 से सेवा-क्षेत्र में सबकी आय तो बढ़ी परन्तु किसान और किसान उत्पाद की कीमत उतनी नहीं बढ़ी कि बाज़ार में उसका वह मूल्य रह गया हो जो 1968 में था. उदाहरण के तौर पर, सेवा क्षेत्र में नौकरी कर रहे लोग जितना सोना अपनी तनख्वाह से 1968 में ले सकते थे, तनख्वाह बढ़ने के कारण वह आज भी ले सकते हैं पर किसानी उत्पाद की कीमत वह क्यों नहीं रही है बाज़ार में? अनिल मिश्र का कहना है कि किसान की लड़ाई सिर्फ सांस्कृतिक न्याय की ही नहीं है बल्कि आर्थिक न्याय की भी है. ज़मीन और संसाधनों का पुनर्वितरण होना ज़रूरी है. अनिल मिश्र कहते हैं कि उन्हें रुपया 6000 का वार्षिक किसान सम्मान निधि नहीं चाहिए बल्कि उन्हें अपने किसानी उत्पाद और उपज की वही कीमत चाहिए जिसका बाज़ार में तुलनात्मक मूल्य 1968 जितना तो कम से कम हो!
बॉबी रमाकांत – सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)
(विश्व स्वास्थ्य संगठन महानिदेशक द्वारा पुरुस्कृत, बॉबी रमाकांत स्वास्थ्य अधिकार और न्याय पर लिखते रहे हैं और सीएनएस, आशा परिवार और सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) से जुड़े हैं. ट्विटर @bobbyramakant)
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