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नस्लवादी पोस्ट : करोड़ों डॉलर खैरात खाने वालों का दंगा पीड़ित मुस्लिमो के लिए “0” योगदान

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नस्लवादी पोस्ट : दंगे फसाद में किसी को खरोंच आना एक तरफ दुखद होता है तो दूसरी ओर शासन की असफलता होती हैं। 1984 अचानक भीड़ सड़कों पर निकल आती हैं, वहशत का नंगा नाच होता है और युवा दुकानें लूटने में व्यस्त हो जाते है, लेकिन सिख समुदाय जान माल की शहादते देकर भी मायूस नहीं होता, सभी एक दूसरे का हाथ पकड़ कर खड़े होते हैं और आज बेशक किसी की भी सरकार हो, हिम्मत रखते हैं कि आंख मिलाकर बात कर सके।

कल मुस्लिम समाज के स्वयंभू रहबर जीटीबी अस्पताल में तशरीफ़ लाए थे। अरब देशों से करोड़ों डॉलर खैरात खाने वाले मोहतरम जनाब को किसी ने इतनी तरबियत भी नहीं दी कि मरीजों के लिए दो रुपए बिस्किट ही ले जाते।
पंजाब से चलकर खालसा ऐड़ दिल्ली में अपना चौंका चूल्हा लगा रहा है क्योंकि अभी अपने गुरुओं की इंसानी खिदमत की हिदायते मानता है। आज जो समान सांझा किया गया उसने एक मुस्लिम वकील साहब ने सबसे बड़ा सहयोग किया था लेकिन एक साथी मीडिया वाले ने उनके साथ फोटो लेनी चाही तो उन्होंने मना कर दिया।

क्या मुस्लिम युवा उन दो हजारी मौलानाओं से सवाल कर सकते है कि ऐसे वक्त में टीवी पर उनकी डिबेट्स कहा है और कितनो ने चादर फैला कर मजलूम कलमा गो भाईयो के लिए कुछ किया है ? मदरसों के नाम पर और मुस्लिम इदारो के नाम पर रोजी रोटी उड़ाने वाले तकलीफ के बाद टोपी पर कलफ और दाढ़ी पर खिजाब लगाकर खड़े होंगे।
खुदी को कर बुलंद इतना….?
Kailash Prakash Singh ने लिखा, 1984 के दंगों पर मत कुछ कहिए। बहुत भयानक था। सज्जन कुमार को दंगा करती भीड़ को गाइड करते मैंने देखा था। बूढ़े लोगों को बसो में मारते देखा, घरों में बंदकर लोग जला दिए गए थे। उत्तर पश्चिमी दिल्ली का डाबरी शाहपुरा, संत नगर, चौखंडी, जनकपुरी, उत्तम नगर, पालम नजफगढ़ कत्लेआम के इलाके थे। पकड़ कर लाया जाता था और चौराहे पर जिंदा जलाया जाता था। बीभत्स था गले में जलता हुआ टायर डाल दिया जाता था।
1984 के दंगे में एक चीज दिखी —सरदारों की आर्थिक स्थिति और हैसियत से स्थानीय जाट और दूसरी कौमें चिढ़ती थीं या फिर कुंठित होती थीं। दंगे का बहाना पाकर लोगों ने जमकर लूटपाट की। इस दंगे के बाद दिल्ली का रूप बदल गया।

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