भारतीय संविधान नागरिकों की समानता, भाषा, धर्म और संस्कृति जैसे मुद्दों पर अल्पसंख्यकों को संरक्षण प्रदान करने, सुरक्षा तथा समानता का अधिकार दिलाने की देश की जिम्मेदारी के प्रति प्रतिबद्ध है तथा संविधान की रचना करते समय भी अनेकता में एकता पर जोर दिया गया है। देश की जनता को किसी प्रकार की तकलीफ न हो, शासन सुचारू रूप से चले, सबके मौलिक अधिकार सुरक्षित रहें, धर्म-जाति के नाम पर विवाद न हों। इन सभी बातों का ध्यान हमारे संविधान-निर्माताओं ने रखा, परन्तु इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अनुच्छेद 341 के मामले में संविधान को न केवल मनमर्जी से तोड़ा-मरोड़ा गया बल्कि संविधान की भावना का उल्लंघन भी किया गया।
आजादी के बाद से भारत ने काफी प्रगति की है, वृद्धि तथा विकास किया है। उसने गरीबी उन्मूलन, साक्षरता, शिक्षा तथा स्वास्थ्य के स्तर को सुधारने में भी सफलता पाई है। मगर इस बात के भी संकेत मिलते हैं कि सभी धार्मिक समाजों और सामाजिक धार्मिक श्रेणियों के विकास की प्रक्रिया में, लाभ में समान भागीदारी नहीं मिल पाई है।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मुस्लिमों की आबादी 14.23% है। भारत के मुसलमान एक लम्बे समय से आवाज उठाते रहे हैं कि मुसलमानों का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसे लोगों का है, जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से अत्यधिक पिछड़ा है। मुस्लिम समाज में बहुत से लोग इसलिए भी आर्थिक पिछड़ेपन का शिकार हैं, क्योंकि उन्हें देश के शैक्षिक ढ़ाँचे में वह अवसर प्राप्त नहीं हैं, जो अन्य देशवासियों को प्राप्त हैं; अथवा वे उन नौकरियों को प्राप्त करने से वंचित हैं, जो भेदभाव के कारण उन्हें प्राप्त नहीं हो पातीं।
1946 में जब संविधान सभा का गठन हुआ और 26 नवम्बर 1949 को जब यह अस्तित्व में आई, उस दौरान डा0 भीमराव अम्बेडकर तथा अन्य सदस्य हिन्दू समाज में निचली जातियों (जिन्हें दलित भी कहा गया) के उत्थान के लिए संविधान में संशोधन के प्रयत्न करते रहे। संविधान के अनुच्छेद 341 में राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि वह विभिन्न जातियों और कबीलों के नाम एक सूची में शामिल कर दें। 1950 में राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश के जरिए एक अनुसूची जारी की, जिसमें पिछड़ी जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भागों को विनिर्दिष्ट कर दिया गया। इन सूचीबद्ध जातियों और जनजातियों को ही अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति कहा गया।
1956 में इस अध्यादेश में परिवर्तन करके सिक्खों और 1990 में बौद्धों को पैरा (3) में सम्मिलित कर दिया गया। अब परिदृश्य यह बना कि कोई भी व्यक्ति जिनका सम्बन्ध हिन्दू, सिक्ख या बौद्ध धर्म से न हो, अनुसूचित जाति की श्रेणी में सम्मिलित न होगा। इस प्रकार ईसाई, मुसलमान, जैन और पारसी इस श्रेणी से बाहर रहे।
यह साफ है कि इस आदेश के तहत अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण केवल हिन्दुओं (सिक्ख या बौद्ध दलितों सहित) को उपलब्ध है, ईसाई या मुसलमान दलितों या किसी अन्य धर्म के दलितों को नहीं। इसका अर्थ यह है कि अनुसूचित जाति का हिन्दू केवल तब तक ही आरक्षण का लाभ ले सकता है, जब तक कि वह हिन्दू बना रहे। अगर वह अपना धर्म परिवर्तित कर लेता है, तो वह आरक्षण का पात्र नहीं होगा।
स्पष्टतः हमारे संविधान में अनुसूचित जाति की परिभाषा केवल अैर केवल धर्म पर आधारित है। इसलिए इस्लाम, ईसाई व अन्य धर्म मानने वाले इससे बाहर हैं। यद्यपि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और संविधान का अनुच्छेद 15 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का निषेध करता है। यही अनुच्छेद यह भी कहता है कि इस अनुच्छेद की कोई बात, राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए तथा अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष उपबन्ध करने में निवारित नहीं करेगी। आखिर उन दलितों को, जो हिन्दू नहीं हैं, वरन् मुसलमान, ईसाई या जैन हैं, आगे बढ़ने के इस मौके से वंचित क्यों किया जा रहा है?
‘समानता’ की उस मूल अवधारणा का क्या हुआ, जो ‘विधि के समक्ष समानता और विधि का समान संरक्षण देने की बात करती हैं और यह कहती है कि राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति के लिए सभी नागरिकों को समान अवसर उपलब्ध होंगे। इन अधिकारों की गारण्टी भारत के संविधान में दी गई है। आखिर संविधान के ऐसे प्रावधान, जो किसी अनुच्छेद के अपवादों का वर्णन करते हैं, संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 में दी गई समानता की अवधारणा से अधिक महत्वपूर्ण कैसे माने जा सकते हैं। देश की स्वतंत्रता में सभी धर्मों के लोगों की कुर्बानी शामिल है। इसलिए धारा 341, जिसमें राष्ट्रपति के अध्यादेश ने संविधान की अवहेलना की है, क्योंकि अनुच्छेद 15 के तहत इस बात की पूरी जमानत दी गई है कि मजहब या किसी और बुनियाद पर किसी शहरी के साथ नाइंसाफी नहीं होगी और तमाम शहरियों के साथ न्याय होगा। अनुच्छेद 341, संविधान के आर्टिकल 15 पर बदनुमा दाग है। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता संभालते ही साफ लफ्जों में कहा था कि उनकी सरकार देश के मुसलमानों को मेनस्ट्रीम में लाने की पूरी कोशिश करेगी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक गरीबों का हो। चूँकि सरकार मुंसिफ होती है और इंसाफ ही सरकार का काम होता है, इसलिए सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह मुस्लिम दलितों के साथ इंसाफ करे तथा उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए आर्टिकल 341 से मजहबी कैद को खत्म कर संविधान की आत्मा को सुकून पहुँचाए, क्योंकि जिस अवसर की जरूरत हिन्दू दलितों को हैं, उसी मौके की दरकार मुसलमान दलितों की भी है। (हस्तक्षेप से सभर)
नूर फातिमा अंसारी
शोध छात्रा, लोक प्रशासन विभाग,
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ