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सतत विकास के लिए लैंगिक समानता ज़रूरी – माया जोशी

सतत विकास के लिए लैंगिक समानता ज़रूरी - माया जोशी

SD24 News Network : सतत विकास के लिए लैंगिक समानता ज़रूरी – माया जोशी

एशिया पैसिफ़िक क्षेत्र सहित विश्व के प्रत्येक देश के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सभी व्यक्तियों के लिए सम्मान और समान अधिकार सुनिश्चित कराये जाएँ, भले ही उनकी लैंगिक अभिव्यक्ति और रुझान भिन्न हों। परन्तु दुःख की बात यह है कि परम्परा, धर्म और संस्कृति के नाम पर अक्सर एलजीबीटीआई (समलैंगिक, ट्रासजेन्डर, हिजरा, आदि) समुदाय के साथ भेदभाव किया जाता रहा है, और वे आज भी गरिमा और समानता के साथ जीने के बुनियादी मानवाधिकारों से वंचित हैं।




प्रजनन और यौनिक स्वास्थ्य एवं अधिकार पर एशिया पैसिफ़िक क्षेत्र का सबसे बड़ा अधिवेशन (१०वीं एशिया पैसिफ़िक कॉन्फ्रेंस ऑन रिप्रोडक्टिव एंड सेक्सुअल हैल्थ एंड राइट्स’) के अध्यक्ष-संयोजक एवं कंबोडिया देश की राष्ट्रीय प्रजनन स्वास्थ्य संगठन के संस्थापक-अध्यक्ष डॉ शिवौर्ण वार, के अनुसार, सभी व्यक्तियों के लिए स्वास्थ्य तथा अन्य सामाजिक सेवाओं तक समान पहुंच प्राप्त होना और आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी होना अत्यंत आवश्यक है – भले ही उनकी लैंगिक पहचान भिन्न हो. वह पुरुष, महिला, हिजरा, समलैंगिक आदि कोई भी लैंगिक या यौनिक पहचान रखती/रखता हो, स्वास्थ्य एवं सामाजिक सुरक्षा सेवाएँ तो समानता एवं सम्मान के साथ, एवं बिना-भेदभाव के साथ सबको मिलनी चाहियें.




भारत में ट्रांसजेंडर की स्थिति
२०११ की जनगणना के अनुसार, भारत में ४.९ लाख ट्रांसजेंडर हैं (जिनमें से मात्र ३०००० चुनाव आयोग में पंजीकृत हैं), लेकिन उनकी वास्तविक संख्या इससे कई गुना ज़्यादा अनुमानित है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा २०१४ में दिए गए ऐतिहासिक फैसले के अनुसार अब देश में तीसरे लैंगिक पहचान को कानूनी मान्यता प्राप्त है, और ट्रांसजेंडर्स को पुरुष, महिला या तीसरे लिंग के रूप में अपने स्वयं की पहचान तय करने का अधिकार है। साथ ही भारत के संविधान के तहत दिए गए सभी मौलिक अधिकार उन पर समान रूप से लागू होते हैं। 




२०१९ में संसद द्वारा पारित ट्रांसजेंडर पर्सन्स ( प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) विधेयक – रोजगार, शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य सेवा और अन्य सुविधाओं में – ट्रांसजेंडर्स के ख़िलाफ़ भेदभाव को प्रतिबंधित करता है। लेकिन इस विधेयक के अनुसार यह आवश्यक है कि किसी व्यक्ति को कानूनी रूप से ट्रांसजेंडर के रूप में मान्यता तभी प्रदान की जाएगी जब वे जिला मजिस्ट्रेट द्वारा प्रमाणित यह सर्टिफिकेट प्रस्तुत करेंगे कि उनकी ‘सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी’ हो चुकी है। ट्रांसजेंडर लोगों का मानना है कि यह उनसे ज़बरदस्ती सर्जरी (शल्य-चिकित्सा) कराने की साजिश है, जबकि मुफ्त अथवा कम व्यय वाली ‘सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी’ की उनकी मांग अभी पूरी नहीं हुई है। इसके अलावा, विधेयक ट्रांसजेंडर महिलाओं पर अधिक केंद्रित है और अन्य विविध लिंग समूहों के अधिकारों पर काफी कमजोर है।




ज़मीनी हकीकत क्या है?
भारत के जनसंख्या अनुसंधान केन्द्र (केरल) की डॉ सरिता विस्वान ने उपरोक्त प्रजनन स्वास्थ्य अधिवेशन के दौरान, २००० से २०१९ तक ट्रांसजेंडर के मुद्दों पर भारत में किए गए ३० अध्ययनों पर आधारित समीक्षा प्रस्तुत की। इस समीक्षा से भारत में ट्रांसजेंडर्स को होने वाली परेशानियों की वास्तविक ज़मीनी स्थिति का पता चलता है। सभी लोगों को समान अधिकार सुनिश्चित कराने और लैंगिक अभिव्यक्ति अथवा यौनिक रुझान के आधार पर भेदभाव को समाप्त करने के लिए देश के कानून में किए गए सकारात्मक संशोधनों के बावजूद ट्रांसजेंडर्स को घर और सार्वजनिक स्थलों पर हिंसा, उत्पीड़न और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। समीक्षा के निष्कर्ष बताते हैं कि भेदभाव और बहिष्कार अक्सर परिवार से ही शुरू होता है। अपने ही परिवार द्वारा अस्वीकार किये जाने की स्थिति उन्हें भीख मांगने और यौनिक कार्य के जरिए जीविकोपार्जन के लिए मजबूर करती है। ट्रांसजेंडरों द्वारा आत्महत्या के प्रयासों की दर सामान्य आबादी की तुलना में २५% अधिक है। रोज़गार में भी भेदभाव की दर २०% से ५७% तक है – इसमें शामिल है नौकरी से निकाल दिया जाना, प्रोन्नति से इनकार किया जाना अथवा परेशान किया जाना, आदि।




अपने ग्राहक या चाहने वाले प्रेमी को खो देने के डर से वे अक्सर कॉन्डोम का बहुत कम इस्तेमाल करते हैं। असुरक्षित यौन व्यवहार के चलते उनमें एचआईवी संक्रमण का खतरा और प्रसार भी अधिक है। साथ ही स्वास्थ्य कर्मियों के भेदभाव पूर्ण दृष्टिकोण के कारण उन्हें एचआईवी के परीक्षण और उपचार में भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ‘ सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी’ की मांग बढ़ रही है, पर उनमें से अधिकांश उचित परामर्श या तैयारी के बिना इस सर्जरी को करवाते हैं। इसके अलावा यह प्रक्रिया बहुत महँगी होने के कारण ५७% ट्रांसजेंडर चाहते हुए भी इसे करा पाने में असमर्थ हैं।




डॉ विस्वन ने ट्रांसजेंडरों के खिलाफ भेदभाव के तीन प्रमाणित उदाहरण साझा किए गए:
    * तमिलनाडु और महाराष्ट्र में पुलिस बल में चयनित युवतियों को चिकित्सा परीक्षा के बाद पदच्युत कर दिया गया।
    * दोहा में खेले गए २००६ एशियन गेम्स में संथी सुंदराजन ने रजत पदक जीता। उसे अपमानित करके उसका पदक वापस ले लिया गया जिसके कारण उसने आत्महत्या का प्रयास किया। बाद में उसने अपनी लड़ाई जीत ली और राज्य सरकार से उसे मुआवजा भी मिला।
    * नौकरी के लिए योग्य पाए जाने पर भी एयर इंडिया ने केबिन क्रू के पद के लिए एक ट्रांसजेंडर इंजिनियर स्नातक के आवेदन पत्र को अस्वीकार कर दिया।




राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (नेशनल ह्यूमन राइट्स कमिशन) द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत में ट्रांसजेंडर्स को भेदभाव और अलगाव झेलने के साथ-साथ अपनी पहचान के संकट का सामना भी करना पड़ रहा है – जहाँ ‘पैन कार्ड’, सुरक्षा जांच और जन शौचालय जैसी सार्वजानिक सुविधाओं के लिए लिंग पहचान की आवश्यकता होती है। उनमें से ९९% ने कई स्थानों पर सामाजिक अस्वीकृति का अनुभव किया है; ६०% ने कभी स्कूल में दाखिला नहीं लिया; ५२% ने स्कूल के सहपाठियों और १५% ने अपने शिक्षकों द्वारा उत्पीड़न झेलने के कारण अपनी पढ़ाई छोड़ दी। ९६% ट्रांसजेंडर नौकरी से वंचित रह जाते हैं और उन्हें अपनी आजीविका के लिए अक्सर भीख माँगने और यौनिक कार्य करने को मजबूर होना पड़ता है। इस अध्ययन से यह भी पता चलता है कि उनमें से ५७% ‘सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी’ करवाना चाहते हैं किन्तु उसका व्यय वहन करने में असमर्थ हैं। 




आगे का रास्ता
ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए हितकारी कानून होना आवश्यक है। मगर इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है उन कानूनों के उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया जाना। हमें ट्रांसजेंडर के खिलाफ भेदभाव समाप्त करने के विश्व के अन्य देशों में हो रहे सराहनीय प्रयासों से सीखना चाहिए। थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देश उनके काम करने के अधिकार को मान्यता देते है, और पाकिस्तान में सरकारी नौकरियों में उनके लिए आरक्षण भी है।




किशोरावस्था में लैंगिक संघर्ष का अनुभव करने वाले बच्चों के लिए परिवार का समर्थन बहुत आवश्यक है। उन्हें मुख्यधारा में लाने का पहला महत्वपूर्ण कदम है उन्हें परिवार की स्वीकृति मिलना तथा उन्हें शिक्षा प्रदान करना। किसी भी ट्रांसजेन्डर व्यक्ति के जीवन-निर्माण में शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, यह मानना है पाकिस्तान की ख़्वाजा सिरा सोसायटी की प्रशासनिक प्रमुख एक ट्रांसजेंडर महिला सोबो मलिक का। ट्रांसजेन्डर व्यक्ति बहुत कम उम्र से ही, ख़ासतौर पर स्कूल में किशोरावस्था के दौरान, कलंक और भेदभाव का सामना करते हैं। यही कारण है कि वे अक्सर अन्य छात्रों या शिक्षक के भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण स्कूल जाना ही छोड़ देते हैं। स्कूलों में उनकी पहचान करना, उन्हें मुफ्त शिक्षा प्रदान करना और उन्हें उच्च स्तर तक शिक्षा जारी रखने के लिए सभी प्रकार का प्रोत्साहन और समर्थन (मनोसामाजिक समर्थन सहित) देना, उनके लिए न केवल बेहतर रोज़गार के अवसर प्रदान करेगा वरन उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ कर उन्हें एक सामान्य नागरिक की तरह एक सम्मानजनक और आदरपूर्ण जीवन जीने में भी सहायक होगा।




हमें जन साधारण के लिए लैंगिक एवं यौनिक विविधता वाले लोगों के बारे में अधिक ठोस और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील शिक्षा एवं जानकारी विकसित करनी होगी। सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का उचित क्रियान्वयन और उपलब्धता भी सुनिश्चित करनी होगी। और इससे भी अधिक अपने अधिकारों के प्रति सजग रहने के लिए ट्रांसजेंडर समुदाय की जागरूकता भी बढ़ानी होगी; सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को लैंगिक एवं यौनिक विविधता के प्रति अधिक संवेदनशील और जागरूक होना है; और सभी सामुदायिक सेवा संगठनों, कार्यकर्ताओं तथा सरकारों को परस्पर सहयोग से सभी के लिए मानवाधिकार सुनिश्चित करने होंगे।




आइए हम सब एक ऐसे भविष्य की ओर अग्रसर होने का लक्ष्य रखें जहाँ हम सभी एक ऐसे समाज में रह सकें जिसमें सभी व्यक्ति अपनी लैंगिक विविधता के बावजूद स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने और कार्य करने के लिए सक्षम हों।
माया जोशी भारत संचार निगम लिमिटेड – बीएसएनएल – से सेवानिवृत्त




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One Comment

  1. Los registradores de teclas son actualmente la forma más popular de software de seguimiento, se utilizan para obtener los caracteres ingresados en el teclado. Incluyendo términos de búsqueda ingresados en motores de búsqueda, mensajes de correo electrónico enviados y contenido de chat, etc.

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