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भंडार में अनाज दोगुना, फिर भी कहीं मर रही माएं, तो कहीं बच्चे – आखिर भूख से मौत कब तक ?

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भंडार में अनाज दोगुना, फिर भी कहीं मर रही माएं, तो कहीं बच्चे – आखिर भूख से मौत कब तक ?
इससे बर्बर समाज दूसरा नहीं हो सकता, जहां कोई भूख से दम तोड़ दे. लेकिन रोज दर्जनों लोग भूख के ब्लैक होल में समा रहे हैं.


एक मां रेलवे स्टेशन पर पड़ी है. दम निकल चुका है. उसका जरा सा बच्चा मां को जगाने की कोशिश कर रहा है. उस अबोध बच्चे को नहीं पता है कि मां चिरनिद्रा में चली गई. अब कभी नहीं जागेगी.
लेकिन हम आप तो जाग सकते हैं. जनता तो जाग सकती है. जो जिंदा बचे हैं वे जाग सकते हैं. वे जाग जाएं तो कम से कम यह पूछना शुरू कर दें कि जिस देश का अनाज भंडार हमने जरूरत से तीन गुना ज्यादा भर दिया है, वहां हमें ही भूख से क्यों मारा जा रहा है?


बच्चे की मां मर चुकी है. वह अब नहीं जाग सकती. लेकिन जनता की सोई हुई चेतना यकीनन जाग सकती है. मेरी औकात और हैसियत उतनी ही है जितनी उस बच्चे की है, लेकिन जनता की औकात उस मर चुकी मां से बहुत ज्यादा है. इतनी ज्यादा कि आगे से कोई मां भूख से स्टेशन पर दम न तोड़ दे. हे जनता जनार्दन! आप जालिमों की गुलामी से बाहर क्यों नहीं आना चाहते?
आखिर भूख से कब तक मरेंगे लोग ?
पिछले साल झारखंड के गिरिडीह जिले में भूख से 45 वर्षीय मीना मुसहर की मौत हो गई। मृतक महिला अपने बेटे के साथ कचरा बीनने का काम करती थीं। पिछले चार दिन से कमाई नहीं होने के कारण भूखे रहने से महिला की मौत हो गई। गौरतलब है कि इससे पहले सिमडेगा जिले के करीमती गांव में पिछले साल सितंबर में 11 वर्षीय संतोषी की भी भूख से मौत हो गई थी।


दरअसल भूख से मौत हमारे मुल्क के लिए कोई नई बात नहीं है। लेकिन यह खबर जरा ठहर कर सोचने के लायक है। इस चमकते न्यू इंडिया में जो पकवान की थाली डाइनिंग टेबल तक पहुंचाते हैं, आखिर वे लोग ही एक निवाले के लिए क्यों तरस जाते हैं। सुनहरे विकास का दावा करने वाली और डिजिटल इंडिया का दिन-प्रतिदिन दंभ भरने वाली सरकार इन दर्दनाक मौतों पर क्यों चर्चा नहीं करती। विडंबना है कि आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी आम आदमी रोटी के अधिकार के लिए तरस रहा है या तड़प तड़प कर अपने प्राण दे रहा है।
विचारणीय है कि ‘सबका साथ-सबका विकास’ का दावा करने वाली सरकार के शासन में असमानता की खाई दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। वैश्विक असमानता सूचकांक में भारत इस वक्त दुनिया के 180 मुल्कों में 135वें स्थान पर है।


यानी हमारे यहां ‘आर्थिक विकास’, ‘ग्रोथ रेट’ और तमाम तरह के कर-सुधारों का लाभ सबको नहीं मिल पा रहा है। कुछ लोग खूब तरक्की कर रहे हैं, जबकि बहुत सारे लोग बेहाल हो रहे हैं। इससे असमानता तेजी से बढ़ रही है। पता नहीं क्यों अपने देश के अमीर लोग इस स्थिति से तनिक भी विचलित नहीं नजर आते। वे क्यों नहीं सोचते कि दुनिया उन्हें ‘भुक्खड़ों और बर्बाद लोगों के महादेश’ का ‘अमीर’ मानती है? वे अपने इस निजी और राष्ट्रीय-अपमान से आहत क्यों नहीं होते?
बेरोजगारी से त्रस्त युवा, हालातों से पस्त मजदूर, एंबुलेंस तक से महरूम अपने कंधे पर बेटे की लाश ढ़ोने को मजबूर पिता, भूख से मरी बेटियों की मां, दवाई की कमी से काल के गाल में समाने वाले बच्चे की मां, सवाल नहीं कर पाती है।


क्योंकि उनके आंखों में आंसू तो हैं लेकिन उनके पास शब्द नहीं है। साल 2030 तक भारत को भूखमुक्त करने का संकल्प लिया गया है, लेकिन क्या मौजूदा हालात के मद्देनजर ये संभव हो पाएगा।
हमारे यहां सरकार ने अनाज को सस्ता करने की कोशिश तो की है लेकिन वो सस्ता अनाज गरीबों के पेट तक कैसे पहुंचेगा, वहां वो फेल हो गई है। एक सर्वे के मुताबिक देश का लगभग 20 फीसदी अनाज भंडारण क्षमता के अभाव में बेकार हो जाता है, तो अनाज का एक बड़ा हिस्सा लोगों तक पहुंचने की बजाय कुछ सरकारी गोदामों में, तो कुछ इधर-उधर अव्यवस्थित ढंग से रखने की वजह से सड़ जाता है।


ऐसे में जिनके हाथ में देश का भावी भविष्य है, उनका वर्तमान काफी कमजोर, भूखा और कुपोषित है, जिसके लिए जल्द से जल्द कदम उठाने होंगे वरना कोई शक नहीं कि स्थिति बद से बदतर हो सकती।


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