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मौमिता और मिथुन की जिंदगी में इस वक्त सबसे अहम शख्स है फारूक अब्दुल्लाह. दोनों पति पत्नी एक महीने से फारूक के घर में रह रहे हैं. फारूक उनकी देखभाल कर रहे हैं, उन्हें दवा, खाना और रोजमर्रा की चीजें मुहैया करा रहे हैं.
मौमिता और मिथुन असम के रहने वाले हैं. मिथुन दास को दिल की बीमारी है. मिथुन अपने इलाज के लिए पत्नी के साथ बंगाल गए थे. वे मुर्शिदाबाद में थे, तभी लॉकडाउन की घोषणा हो गई. वे वहीं फंस गए. उनके पास इतना पैसा नहीं था कि इतना लंबा लॉकडाउन होटल में काट दें. वहां उनका कोई परिचित या रिश्तेदार नहीं था.
उन्होंने अपने गांव में फोन किया तो पता चला कि वहां का एक युवक है जो फेरी का काम करता है. वह अपने काम से असम आता जाता है. गांव से किसी ने युवक का नंबर दिया. फोन से पता पूछकर पति पत्नी उसके घर पहुंचे. फारूक ने खुशी खुशी उन्हें अपने घर रहने को कहा.
इससे क्या फर्क पड़ता है कि फारूक अब्दुल्लाह का इलाका मुस्लिम बहुत है? मौमिता और मिथुन एक महीने से वहां रह रहे हैं.
मिथुन का कहना है, फ़ारूक़ ने हमारे लिए इस एक महीने में जो किया है वह तो अपने लोग भी नहीं करते हैं. हम उनका अहसान आजीवन नहीं भूल सकते. फारूक का कहना है कि मैं असम में सामान बेचने जाता था. एकाध बार इनके गांव में भी गया हूं. लॉकडाउन की वजह से यह लोग मुसीबत में थे. इसलिए मैंने इंसानियत का धर्म निभाया. अभी तो महज़ एक महीना ही हुआ है. यह लोग चाहें साल भर यहां रहें.
यह हमारे समाज की सामान्य घटना है. ऐसी घटनाएं लाखों की संख्या में होती हैं. यह बताने की जरूरत सिर्फ इसलिए है, क्योंकि कुछ लोग अभियान चला रहे हैं कि एक समुदाय दूसरे का दुश्मन है. ऐसे में यह बताना जरूरी है कि यहां कोई किसी का दुश्मन नहीं है.
जो लोग फालतू के नफरती अभियान चलाते हैं, ये नहीं चाहते कि कोई मौमिता किसी फारूक की मेहमान बने. ये नहीं चाहते कि कोई आदिल किसी आशाराम को कंधा दे. इनके अभियान में आप शामिल न हों. समाज में कोई समुदाय, दूसरे समुदाय से अपार प्रेम नहीं करता. इसकी जरूरत भी नहीं. बस सब लोग अपने तरीके से जीते हैं और कभी कभार मुसीबत में एक दूसरे के काम आते हैं. यही सौहार्द है. यह बना रहना चाहिए.
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