आज कल हर परेशानी से निजात का आसान तरीका तस्बीह घुमाने को कहा जाता हैं. मिसाल के तौर पर:- मुसलमान परेशान हैं तस्बीह घुमालो, मुसलमान क़त्ल हो रहे है इज्तेमाई दुआ करलो, ऐसा ही दौर आज कल देखने को मिल रहा हैं. दरअसल बात तस्बीह घुमाने की नहीं बात अपनी बुज़दिली को छुपाने की हैं. जो कौम दुश्मनों की ईंट से ईंट बजा डालती थी, आज वही कौम इज्तेमाई दुआ का नाटक करके अपनी बुज़दिली का खुला मुज़ाहेरा करती हैं, हम इज्तेमाई दुआ और तस्बीह पढ़ने को बुरा नहीं कहते क्योंकि ये ही वो रूहानी अमल हैं जिससे जिस्मानी ताक़त क़ुव्वत और तवानायी मिलती हैं।
लेकिन दौरे हाज़रा में इस अमल के भरोसे मुसलमानों को थपकियां देकर सुलाया जारहा हैं. मसलन, बर्मा के मज़लूम मुसलमानों पर ज़ुल्म के पहाड़ तोड़े जा रहे हैं और यहा तस्बीह घुमाना शुरू कर दिये कोई आयते करीमा की मजलिसे मुनक़्क़ीद कर रहा हैं, कोई इज्तेमाई दुआ के नाम पर उंगलिया फोड़-फोड़ कर ज़ालिमो को कोस रहा हैं। दुश्मन सर पर तलवार लेकर खड़ा हैं और तुम इजतेमाई दुआ के लिये आज भी मैदान तलाश कर रहे हैं,
हालात देख कर मालूम होता हैं दुश्मन छाती पर सवार हैं और उससे तुम कहोगे रुक मैं अभी तुझ पर “कुलया-अय्योहल-काफेरुन” पढ़ के दम करता हूँ,
अल्लाहो अकबर वो कैसे लोग थे जो तनहा जंगो को फतेह कर लिया करते थे। मैं समझ सकती हूँ, तुम लड़ने बर्मा तो नहीं जा सकते सिर्फ दुआ ही कर सकते हो लेकिन अपने मुल्क में मुल्क के गद्दारों से, इस्लाम दुश्मन ताक़तों से तो लड़ सकते हैं. अपने हुक़ूक़ के लिये अपने वतन के लिये तो लड़ सकते हो, बर्मा के मज़्लूमो के हक़ में आवाज़ उठा सकते हो , लेकिन साथ में अपने ही देश में अपने और अपने परिवार की हिफाज़त के लिए आपकी क्या तैयारी हैं?
खालिस जुब्बे और कुब्बे से कोई क़यादत करने वाला नहीं बन सकता, ज़ाहिरी तौर पर कौम की क़यादत करने वाले को कायीद कहा जाता हैं, मज़्लूमो के हक़ में लड़ने वाले को कायीद कहा जाता हैं, अलक़ाबात तो कौम में चापलूसी करने वालो को भी मिलजाते हैं, हक़ीक़त तो ये हैं अब कोई मोहम्मद बिन कासिम नहीं आने वाले, नाही खालिद बिन वालिद, सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी, और न उमर मुख़्तार, न सद्दाम हुसैन अब सिर्फ आ सकता हैं तो इंक़लाब आ सकता हैं, आ सकता हैं तो इख़्तेदार, वो भी कब?,
जब तुम खुद अपने अंदर के छुपे हुए मोहम्मद बिन कासिम को पहचानोगे तब, जब तुम खुद में सलाहुद्दीन अय्यूबी सा जज़्बा पैदा करोगे तब, जब तुम मिलके सद्दाम बनोगे तब। अब भी तुम्हे हिंद में जीना हो चैन से, तो मारना अली से सिखलो जीना हुसैन से तुम्हे हक़ के लिये लड़ने का हुक्म दिया गया हैं तस्बीह घुमाने का नहीं, ये ही सबक तुम्हे तुम्हारे असलाफो से भी मिला आइये अल्लाह के वली से पूछते हैं हालात बदलने के लिये तस्बीह घुमाना चाहिये या तलवार??
फ़क़ीर क़ाला ख़ान बलुचिस्तान के मर्रीे क़बाईल के सुफ़ी बुर्ज़ुग थे जो हमेशा ख़ुदा की इबादत में मशग़ुल रहते थे, जब अंग्रेज़ो ने बलुचिस्तान (तब हिन्दुस्तान का हिस्सा था) पर हमला किया तो ‘फ़क़ीर क़ाला ख़ान’ ने तस्बीह को रख हांथ में तलवार उठाई और अंग्रेज़ों की ऐसी मुख़ालफ़त की के अंग्रेज़ों को ‘फ़क़ीर क़ाला ख़ाँन’ के सर की क़ीमत रखनी पड़ी, और आख़िर वो गिरफ़्तार हुए, उन्हे और उनके दो साथी “रहीम अली” और “जलम्ब ख़ान” के साथ 1891 को फाँसी दे दी गई….
मेरे ख्याल से समझने और समझाने के लिये बस ये एक वाक़या काफी होगा, इस छोटे से वाक़या से हम बहोत सारा दरस हासिल कर सकते हैं।