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ओवैसी-अजमल, दूसरे स्वयंघोषित सेक्यूलर दल के मुस्लिम नेताओं से क्यों अलग हैं और मुसलमानों किस स्थिति में क्या भूमिका लेहिए:नी चा

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मेरा अपना मानना है कि तथाकथित सेक्यूलर दलों के नेताओं में कोई बुराई नहीं हैं, बुराई तो उनके दलों के नेतृत्व में है जोकि ख़ुद सेक्यूलर होने का दम भरते हैं मगर काम हमेशा से कट्टर बहुसंख्यकों के हित मे करते आए हैं और करते रहेंगे। इन तथाकथित सेक्यूलर दलों के मुस्लिम नेताओं की दिक्कत यह है कि यह लोग मुस्लिम मुद्दों पर कुछ बोलेंगे नहीं; अगर बोलेंगे, करेंगे तो भी बहुत ही सावधानी से, लाचारी से, अपनी कथित छवि पर आंच न आए इस अंदाज में बोलेंगे, करेंगे। जबकि ओवैसी हो या अज़मल, या फिर मुस्लिम लीग जैसे दलों के नेता, जब भी मुसलमानों के लिए आवाज़ उठाएंगे तो “मुसलमान” बनकर उठाएंगे। मुसलमानों के मुद्दे इनकी प्राथमिकता में होते हैं। यह न डरते हैं, न झिझकते हैं। जब भी कुछ बोलते हैं, आम मुसलमानों के दिल बात 
आप, ग़ुलाम नबी आज़ाद, सलमान ख़ुर्शीद, आज़म खान, अबू आज़मी या जो भी मुस्लिम नेता हैं जो तथाकथित सेक्युलर दलों की ग़ुलामी में हैं, को देखकर उनके दलों को वोट देंकर जिताएंगे तो यह ताक़त मुसलमानों से आरक्षण छीननी वाली, दंगे करवाकर हज़ारों मुसलमानों का क़त्ल करने वाली, मुस्लिम नरसंहारियों को बचाने वाली, बाबरी मस्जिद में पूजा शुरू करने वाली खांग्रेस को मिलेगी; हमेशा सामाजिक न्याय की बात करते हुए मुसलमानों को राज्य में आरक्षण न देने वाले लालू को मिलेगी; नीतीश को मिलेगी, 1992-93 मुस्लिम नरसंहारियों को सज़ा न देकर उनसे घरेलू और दोस्ताना संबंध बनाए रखने वाले, मरने के बाद बाल ठाकरे को राजकिय सम्मान से जलाने वाले शरद पवार को मिलेगी; मुसलमानों को आरक्षण न देकर मुज़फ्फरनगर नरसंहार में मज़े से सैफ़ई महोत्सव मनाने वाले मुलायम-अखिलेश को मिलेगी… और भी फ़र्ज़ी सेक्यूलर नाम, दल हैं…
लेकिन, लेकिन… आप ओवैसी-अजमल, मुस्लिम लीग, पीस पार्टी या एसडीपीआई जैसे मुस्लिम नेतृत्व के प्रत्याशियों को अपना वोट देते हैं, यह ताक़त 100 फीसद उनको मिलेगी जो बेबाक होकर आपके अधिकारों के लिए लड़ते हैं, विशुद्ध रूप से आपका प्रतिनिधित्व करते हैं… अल्पसंख्यक होने का रोना कबतक रोओगे, विभाजन के पहले भी मुसलमान अल्पसंख्यक थे, अब भी है और नज़दीकी कुछ सौ या हज़ार साल तक यही स्थिति बनी रहेगी… तो क्या आप तब तक फ़र्ज़ी सेक्यूलर दलों को जिताकर अपनी हालात बाद से बदतर कर लोगे और उम्मीद रखोगे कि एक दिन पूरा भारतवर्ष इस्लाम अपनाएगा और तुम्हारी 50वी, 100वी पीढ़ी मुख्य धारा में आएगी…?????
…तो मुसलमान क्या करें??
सबसे पहले तो मुसलमान बहुसंख्यकों और कुछ आतंकी संगठनों का डर दिल से निकाल दें। अपने को उतना ही या उससे ज़्यादा भारतीय समझें जितना बहुसंख्यक समझते हैं, अपनी समस्याओं को उसी अंदाज़, उसी तेवर में उठाएं,जैसा कि बहुसंख्यक समुदाय उठाता है।
रही बात चुनाव कि तो जहां कहीं भी ओवैसी-अजमल, मुस्लिम लीग के प्रत्याशी हो,चाहे किसी भी जाति-धर्म के हो,वहां बिना यह समझे उन्हें वोट दे कि चाहे कोई जीते या हारे, हमें अपना राजनीतिक दबाव गुट बनाना है। जिस तरह फ़र्ज़ी सेक्यूलर दलों से जीता हुआ मुसलमान अपने फ़र्ज़ी सेक्यूलर दल को ताक़त देता है, उसी तरह मुस्लिम नेतृत्व वाले दल से जीता किसी भी जाति धर्म का प्रत्याशी मुस्लिम नेतृव को शक्ति देता है… याद रखिए कि हारे हुए प्रत्याशियों को मिले मतों की भी गिनती होती है और उनको मिले मतों की परिभाषा, चर्चा होती है कि किस समाज का वोट किसे मिला और वह किसीकी हार/जीत का कारण बना…
रही बात वहां कि जहां मुस्लिम नेतृत्व वाले दल का प्रत्याशी नहीं है, वहां मजबूरी की माँ समझकर खांग्रेस सहित इतर स्वयंघोषित सेक्यूलर दल के प्रत्याशी को वोट दीजिए; लेकिन अगर स्वयंघोषित सेक्यूलर दल के प्रत्याशी से कोई मुस्लिम विरोध दल का प्रत्याशी अच्छा हो तो फिर दिखावे के सेक्यूलर प्रत्याशी के बजाए उसे ही वोट दीजिए जो मन का सेक्यूलर हो। शिवसेना, भाजपा जैसे दल में ऐसे कईं नेता हैं जिनके निर्वाचन क्षेत्र में फ़र्ज़ी सेक्युलरों के इलाकों से ज़्यादा मुसलमान सुरक्षित हैं…
“कौन कहता आसमान में छेद नहीं होता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो!”….
अतंतः यही कहना चाहूंगा कि यह “मुसलमान-मुसलमान” चीखने वाली आवाज़े ख़ामोश हो जाना भारतीय मुसलमानों के ज़रा भी हित में नहीं है। यह आवाज़े कथित आज़ादी के दब गई थी तो मुसलमानों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति कितनी बदतर हो गई यह बदमाश खांग्रेस द्वारा नियुक्त
न्यायमूर्ति राजिंदर सच्चर की समिति ने पूरी दुनियां को दिखाई है।
कहीं कहीं बड़े का गोश्त बंद होना, मोब लिंचिंग में कुछ लोगों का मारे जाना, इफ़्तार पार्टीयों और मज़ारों की चादरों में कमी आना, हिंदू नेताओं, पदाधिकारियों द्वारा इस्लामिक प्रतीकों को धारण न करना.. यह बहुत छोटी घटनाएं हैं उन घटनाओं, साजिशों के मुकाबले जो विभाजन के, हैदराबाद राज्य जबरन हथियाने के समय और 65-70 साल के खांग्रेसी तथा तमाम स्वयंघोषित सेक्युलर दलों के नेतृत्व में हुई हैं…
*”एक हो जाऐं तो बन सकते हैं ख़ुरशीद-ओ-मुबीन वरना इन बिखरे हुवे तारों से कुछ बात बनती
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