जहाँ खड़ी हैं शाहीन बाग़ की औरतें उसके पीछे अगर मुल्क़ खड़ा हो जाये तो शायद फिर से आज़ाद हो जाये
जहाँ बैठी हैं शाहीन बाग़ की औरतें उनके पीछे अगर मर्द बैठ जायें तो शायद मर्दानगी से उबर जायें जहाँ इबादत कर रही हैं. शाहीन बाग़ की औरतें वहाँ रुकें वाइज़ तो अपनी नसीहतों से बाज़ आयें जहाँ मिल-मिला रही हैं. शाहीन बाग़ की औरतें ग़ौर फ़रमायें अगर फ़िरक़े तो सब शरणार्थी हो जायें.
जहाँ नारे लगा रही हैं शाहीन बाग़ की औरतें वहाँ पहुँचे क्रांतियाँ तो सुविधाओं के ठौर भूल जायें जहाँ बच्चे खिला रही हैं शाहीन बाग़ की औरतें, उसे देखें समझदारियाँ तो नादानियों के घर जायें जहाँ से हुक़ुम-खिलाफ़ी कर रही हैं. शाहीन बाग़ की औरतें वहाँ आये हुक़ूमत तो अपनी बुनियादों में गड़ जाये.
जहाँ ख़्वाब देख रही हैं शाहीन बाग़ की औरतें देखे ख़ुदा तो अपनी नींद पर शरमाये जहाँ हैं. शाहीन बाग़ की औरतें वहाँ से फिर से शुरू हो सकता है. सबकुछ समूची आदमीयत राख में मिलकर फिर से खड़ी हो सकती है. क़ुदरत हो सकती है क़ुदरत फिर से क़ायनात शाहीन बाग़ के शामियाने सी तन सकती है.
हम सब अपने गुनाहों से मुआफ़ होकर फिर से शुरू कर सकते हैं इंसां होना एक क़ौम, एक नस्ल की तरह मुक़म्मल होना एक ख़ल्क़, एक ख़्वाहिश की तरह मुमक़िन होना ।
-Anshu Malviya