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क्या इस्लाम मे ऊंच-नीच, जाती व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, भेदभाव है ????
सवाल – क्या इस्लाम मे ऊंच निच, भेदभाव है..? अगर नहीं तो कुछ समाज/जाती अपने को ऊंचा क्यों मान दूसरों से शादी /व्यवहार क्यों नही करते..?
#जवाब – इसलाम में रंग, जात- पात, नस्ल आदि के नाम पर किसी भी तरह के भेदभाव की कोई जगह नहीं है। अल्लाह की नज़र में सभी मनुष्य इस आधार पर एक समान हैं_
क़ुरआन में अल्लाह ताला फरमाते हैं: “ऐ लोगो! हमनें तुम्हें एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और तुम्हें बिरादरियों और क़बिलों का रूप दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह के यहाँ तुममें सबसे अधिक प्रतिष्ठित वह है, जो तुममे सबसे अधिक डर रखता है। निश्चय ही अल्लाह सबकुछ जाननेवाला, ख़बर रखनेवाला है (सुरह हुजूरात,आयत:13 )”
पैगम्बर मुहम्मद ﷺ ने अपने आखरी हज के मौके पर फ़रमाया: *किसी अरब वाले को दूसरे मुल्क वाले पर ओर ना दूसरे मुल्क वालों को अरबों पर कोई फजीलत ओर बरतरी (महत्व/विशेष अधिकार) नहीं है इसी तरह किसी गोरे को काले पर ओर काले को गोरे पर कोई फजीलत नहीं है, फजीलत सिर्फ तक्वा यानी अल्लाह से डरने की वजह से है*
इस से हमे मालूम हुआ कि इस्लाम में नस्ल,वतन,रंग,बिरादरी को कोई एहमियत (महत्व) नहीं है, यह सिर्फ इसलिए बनाई गई है की लोग एक दूसरे को पहचान सकें जैसे रंग-रूप ,बोल- चाल देख कर पहचाना जा सकता है कि यह व्यक्ति किस जगह का है, किस जगह से ताल्लुक रखता है।
लेकिन यह चीज़ किसी को छोटा या बड़ा नहीं बनाती बल्कि अल्लाह के नज़दीक जो चीज़ किसी का दर्जा बढ़ाती है और किसी को दूसरे से बेहतर बनाती है तो वह है “तक़वा” यानी कि अल्लाह से डर,धर्मपरायणता।
इसलाम की विशेषता यह है कि यह सिर्फ उपदेश,कहने भर पर नही रुकता बल्कि इस से आगे बढ़कर इस पर अमल करवा कर आदर्श स्थापित करवाता है।
जैसे दिन में पांच वक्त नमाज़ का हुक्म अल्लाह ने दिया जिसमें सभी को एक सफ (लाइन) में कंधे से कंधा मिलाकर नमाज़ अदा करनी होती है। फिर चाहे कोई अमीर हो या गरीब,किसी बिरादरी का हो,मालिक हो या कर्मचारी , बादशाह हो या ग़ुलाम किसी तरह का भेदभाव नही रह जाता। और हज के मौके पर यही चीज़ आलमी (वैश्विक) तौर पर देखने को मिलती है कि एक जैसे से कपड़े में काले, गोरे चाहे किसी मुल्क के हो सब कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होते हैं और साफ जाहिर होता है कि अल्लाह के सामने सब बराबर हैं । इसलाम के कई और अर्कानो में इस तरह की मिसाल देखी जा सकती है।
स्पष्ठ हुआ कि इसलाम में जात-पात का कोई आधार नही है ना किसी बिरादरी की किसी दुसरे पर श्रेष्ठता है। सय्यद होना भी किसी को किसी तरह की कानूनन या व्यवहारिक विशेषता प्रदान नहीं करता।
और इस बात के अनेकों उदाहरण मौजूद हैं कि पैगम्बर ऐ इंसानियत हज़रत मुहम्मद ﷺ से ही कई सय्यद कानूनी मामलों में अदालत में सामान्य व्यक्ति के रूप में पेश होते आये हैं, दूसरे मुस्लिमो में विवाह/रिश्ते आदि करते आएं हैं , और कई सय्यद मौजूद होने पर भी किसी गैर सय्यद को तक़वे और काबिलियत के आधार पर अमीर (सरदार) नियुक्त किया जाता रहा है।
क्या मुसलमानों को सिर्फ अपनी बिरादरि/जाती/समाज में शादी करने का हुक्म है ? ऐसा बिल्कुल नही है ,क़ुरान में जिन रिश्तों(खूनी रिश्तों) में शादी करना मना है उसके अलावा एक मुस्लिम दुनिया के किसी भी मुल्क, नस्ल,बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले मुस्लिम से शादी कर सकता है। इसमें किसी तरह की बंदिश नही है।
इसे इसलाम ने व्यक्ति की अपनी choice पर छोड़ दिया है। फिर चाहे वो अपनी आपसी रिश्तेदारों में करे या बाहर करे । कई लोग आपस मे सिर्फ इसलिये रिश्ते करते हैं क्यूंकि लोग जाने पहचाने होते हैं अतः निभाह की संभावना काफी अधिक होती है। इस्लाम इसे भी मना नहीं करता ।
हाँ इस बात की सलाह अवश्य देता है कि अपनी बच्चो का रिश्ता सोच -समझकर और हर चीज़ पर विचार करके करे ताकि आगे कोई समस्या ना आए और वे एक अच्छा वैवाहिक जीवन व्यतीत करें ।
लेकिन कोई व्यक्ति अगर सिर्फ इन चीज़ों (नस्ल, बिरादरी) के आधार पर अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझे अपनी बिरादरी से बाहर रिश्ता करना हराम/पाप समझे और इस वजह से बाहर रिश्ता ना करे तो यह बिल्कुल गलत बात है और वह अल्लाह की हलाल की हुई शय/चीज़ को हराम करार कर बहुत बड़ा गुनाह कर रहा है।
अंत मे सवाल आता है कि इतना प्रावधान होने के बाद भी कुछ मुसलमान जाती के नाम पर भेदभाव क्यों करते हैं??
इसकी सीधी सी वजह इस्लामिक ज्ञान ना होना और इसलाम की शिक्षा से दूरी होना है। जब कोई व्यक्ति इन चीज़ों से दूर होता है तो समाज मे व्याप्त बुराइयों में वह भी लिप्त हो जाता है और फिर उन बुराइयों को अपना लेता है ,जिनको उसने या उसके पूर्वजो ने इसलाम लाने पर त्याग कर दिया था ।
जैसा भारत में इस्लाम के आने से पहले ही जाती वाद, ऊंच नीच ओर एक ही खानदान में शादी की रीत चली आ रही है तो किसी दूसरे मुल्कों में काले गोरे के भेदभाव का इतिहास रहा। ऐसी और भी कई सामाजिक बुराइयां है जिनकी इसलाम में कोई जगह नही,पर कई मुस्लिमो ने उसको आत्मसात कर लिया है जिसका कारण ऊपर बतायी गई बात है जो कि इसलाम की नही बल्कि उनकी खुद की और समाज,सोसाइटी और मुआशरे की गलती है।
जिसका उन्हें त्याग करना चाहिए और इसलाम की शिक्षाओं पर अमल करना चाहिए।
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