जोगेंद्रनाथ मंडल पर बहुत बार, बहुत कुछ लिखा है मैंने। उनकी राजनीतिक यात्रा तथा पाकिस्तान जाने, भारत वापस आने की यात्रा भी विस्तार से लिखी है। लेकिन आज फिर से कुछ तथ्यों के साथ उन तमाम बातों का जिक्र करना चाहता हूं जो सवाल मेरे समक्ष व्यंग्य, कटाक्ष या आलोचना के तहत मुझे बार बार मिले हैं। सोशल मीडिया के दुष्प्रभाव तथा राजनीतिक पक्षपात के चलते जोगेंद्रनाथ मंडल और डॉ अम्बेडकर की राजनीति पर हर शख्स टिका टिप्पणी करता रहता है। वह लोग भी जिन्हें ठीक से पता भी नहीं कि आखिर माजरा क्या है।
बहरहाल! माजरा यह है कि भारत में एक से बढ़कर एक नगीने रहे हैं। उनमें से अधिकांश हाशिये के लोग थे जो या तो इस्तेमाल किये गये या फिर गलत ऐतिहासिक प्रस्तुतिकरण करके बिसारे गये। जोगेंद्रनाथ मंडल और डॉ अम्बेडकर का भारत में बेहद आलोचनात्मक तथा नकारात्मक पक्ष जनता के सामने रखा गया। वह भी बेहद सीमित तरीके से। इनसे अधिक महिमामंडन तो जिन्ना, गोडसे और सावरकर का हुआ है।
सावरकर के द्विराष्ट्र के सुद्धान्त पर राजनीतिक लाभ हेतु काम जिन्ना ने शुरू किया। उधर जोगेंद्रनाथ मंडल सुभाष चंद्र बोस से काफी प्रभावित थे। साथ ही अपने समाज के लिए कुछ करने की लालसा ने उनको कांग्रेस का करीबी बनाया लेकिन समयोपरांत उनको इस बात का एहसास हो गया कि कांग्रेस के पास उनके समाज के उद्धार के लिए कोई एजेंडा नहीं है, नाही ऐसी कोई मंशा है। इस बात से नाराज़ होकर वे उस समय की दूसरी सबसे बड़ी चर्चित राष्ट्रिय पार्टी – मुस्लिम लीग के साथ जुड़ गये।
यह उनकी गलती नहीं थी बल्कि शुरुआत में बेहतरी का एक विकल्प था। उस वक्त अलग पाकिस्तान की बात सच जैसी नहीं थी। ऐसी स्थिति में मुसलमानो के वर्चस्व वाली मुस्लिम लीग में जोगेंद्र नाथ मंडल जैसे नेता के जुड़ने से मानो जिन्ना और दूसरे मुस्लिम लीग के नेताओं को लगने लगा कि उनकी स्वीकार्यता अब दलित और अन्य पिछड़ी जातियों में भी बन सकती है। उस वक्त देशभक्ति का मतलब केवल कांग्रेस या कांग्रेसी था ठीक जैसे आज बीजेपी या भाजपाई। दूसरी ओर जिन्ना को इस बात का बखूबी अंदाज़ा था कि मुस्लिम लीग में मंडल की मौजूदगी ‘पाकिस्तान मूवमेंट’ को कैसे फायदा पहुंचा सकती है।
नतीजा यह हुआ कि मंडल और उनके अनुयायियों ने कांग्रेस पार्टी की तुलना में जिन्ना की मुस्लिम लीग को अधिक धर्मनिरपेक्ष समझना शुरू कर दिया। मंडल को यकीन हो गया कि “कांग्रेस पार्टी शासित भारत की तुलना में जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान में अनुसूचित जाति की स्थिति बेहतर होगी.” और यह भ्रम नहीं बल्कि वास्तविकता भी थी। क्योंकि काठियावाड़, गुजरात के प्रेमजीभाई ठक्कर के पोते और जीणाभाई(पुंजाभाई) ठक्कर के बेटे मोहंमद अली जीन्ना का परिवार नये नये नवेले मुस्लिम थे।
मोहम्मद अली जिन्ना कट्टर नहीं बल्कि उदार व शांत स्वाभाव के थे। उनके लिए कहा जाता है कि वे पोर्क तक खाते थे। जिसकी कल्पना किसी मुस्लिम से करना अकल्पनीय थी। यह कोई वाट्सएप वाला इतिहास नहीं बल्कि आज़ादी के समय से मात्र एक पीढ़ी पूर्व तक जिन्ना का परिवार हिन्दू राजपूत ही था। प्रेमजीभाई ठक्कर का बहुत बडा कारोबार था। पुंजाभाई ठक्कर उनकी पत्नी मीठीबाई की संतानो के नाम इस प्रकार से थे। मोहंमद अली, अहमद अली, बंदे अली, रहमत बाई, शिरीन बाई और फातिमा।
मोहम्मद अली जिन्नाह ने दो शादियां की थी, एमी बाई और रत्ना बाई।रत्नाबाई से उनकी जो संतान हुई उसका नाम दिना रखा था, जिसने की पारसी बिजनसमेन नेविली वाडीया से शादी की थी, जो कि लंबी नही टिकी थी और जल्द हो डिवोर्स हो गया था। नसली वाडीया जो है वो उन्ही के सुपुत्र है। नसली के बेटे नेस वाडिया बोम्बे डाईंग, ब्रिटानिया और आईपीएल में किंग्स ईलेवन पंजाब टीम के मालिक है और प्रिटी जिन्टा के एक समय के प्रेमी भी। यह कहानी लंबी है लेकिन कहने का अर्थ यह था जिन्ना की दुसरी पत्नी की संतान यहीं भारत में ही रह गई थी जो सब पारसी हैं।
जिन्ना और मंडल की दोस्ती का आलम कुछ यूँ हुआ कि ऐतिहासिक पटल पर पहली बार ‘दलित-मुस्लिम’ की राजनीति ने दस्तक दी। उधर डॉ अम्बेडकर संविधान सभा में जाना चाहते थे। संविधान सभा में भेजे गए प्रारंभिक 296 सदस्यों में अंबेडकर को जगह तक नहीं मिली थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने संविधान सभा से अंबेडकर को दूर रखने के लिए हर तरह के दांव-पेंच लगाने शुरू कर दिए थे। कांग्रेस ने हरसंभव यह प्रयास किया था कि अंबेडकर को उस उच्च सदन की सदस्यता न मिल सके, जो भारत का संविधान बनाने वाला था। सरदार पटेल ने तो यहाँ तक भी कह दिया था कि “संविधान सभा के दरवाजे ही नहीं उसकी खिड़कियां भी डॉ अंबेडकर के लिए बंद हैं. हम देखते हैं कि वे संविधान सभा में कैसे प्रविष्ट होते हैं।”
अंबेडकर के गृह प्रदेश बॉम्बे प्रेसिडेन्सी ने उन्हें नहीं चुना था, वे चुनाव हार गए थे। इसके बावजूद, अंबेडकर ने हार नहीं मानी और उन्होंने कलकत्ता जाकर बंगाल विधान परिषद के सदस्यों का समर्थन हांसिल करने का प्रयास किया लेकिन दाल यहाँ भी नहीं गली. नतीजन, वे दिल्ली वापस लौट गए। तब जोगेंद्र नाथ मंडल पहले से ही अंबेडकर की लेखनी, उनकी विद्वता और दलितों के लिए कार्यों को लेकर उनके प्रशंसक थे। जब उन्हें अंबेडकर की तत्कालीन स्थिति की भनक लगी तो उन्होंने तुरंत अंबेडकर को बंगाल के जैसोर-खुलना चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया। मंडल डॉ. अंबेडकर की उम्मीदवारी के प्रस्तावक बने, कांग्रेस एम.एल.सी. गयानाथ बिस्वास समर्थक और मुस्लिम लीग ने इस चुनाव में आंबेडकर को नैतिक समर्थन दिया। फिर चुनाव हुए, नतीजें आये और डॉ. अंबेडकर के संविधान सभा में जाने का रास्ता साफ हो गया।
आज़ादी से पहले भी भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक थे और दलित वर्ग भी शोषित था इसलिए जोगेंद्रनाथ मंडल को यकीन था कि पाकिस्तान दोनों के दर्दों, भावनाओं और आशाओं पर बनने वाला देश होगा। इसलिये वे अब खुलकर ‘पाकिस्तान मूवमेंट’ के समर्थन में आ गए और शेष दलितों को भी इस मूवमेंट के साथ जोड़ने में जुट गए। चूँकि मुस्लिम लीग का मकसद भारत को हो सके उतना बाँटकर कर पाकिस्तान के नक़्शे को बड़ा करना था इसलिए उन्होंने मंडल को प्रत्येक मौक़ों पर पार्टी का खास साबित किया। लीग के नेता यह बखूबी जानते थे कि केवल मुसलमानों की राजनीति से पाकिस्तान का नक्शा बड़ा नहीं होगा इसके लिए जरूरी है कि दलितों, पिछड़ों को भी साथ रखा जाए।
जोगेंद्रनाथ मंडल कुछ ही समय में जिन्ना के बेहद खास हो गए और पार्टी में उनका कद शीर्ष के नेताओं में शुमार हो गया। मंडल भी खुलकर जिन्ना के सिद्धांतों की प्रशंसा करने लगे। इसके पीछे के कारण यह थे कि दलित वर्ग अपने हित, अधिकार और स्वतंत्रता के लिए छटपटा रहा था। कांग्रेस में दलित नेता तो थे लेकिन वह आज के भाजपाई दलितों की भांति केवल खानापूर्ति के थे। इसका अंदाजा इस बात से लगाइये कि संविधान सभा में लगभग 31 दलित, पिछड़े थे लेकिन आप उनका नाम तक नहीं जानते होंगे?
कल तक जिस पाकिस्तान का वजूद मुसलमानों में तलाशा जा रहा था अब उस तलाश का केंद्र दलित-मुसलमान हो चला था। लेकिन मुस्लिम लीग और जोगेंद्र नाथ मंडल की ‘दलितों और मुसलमानो का पाकिस्तान’ वाली सोच से अंबेडकर गहरा विरोध रखते थे। अंबेडकर भारत विभाजन के विरोध में थे। वे दलितों के लिए भारत को ही उपयुक्त मानते थे और उनका कहना था कि “यदि भारत का बँटवारा मज़हबी आधार पर हो रहा है तो जरूरी है कि कोई भी मुसलमान भारत में ना रहे और पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं को भी भारत आ जाना चाहिए, वर्ना समस्याएं बनी रहेंगी.”
कांग्रेस ने सियासी छलावा करते हुए जिन जिलों से अंबेडकर संविधान सभा के लिए चुने गए थे उन जिलों को पाकिस्तान को दे दिया। विभाजन की योजना के तहत इस बात पर सहमति बनी थी कि जिन इलाकों में हिंदुओं की आबादी 51 फ़ीसदी से अधिक है उसे भारत में रखा जाएगा और जहां मुस्लिम 51 फ़ीसदी से अधिक है उन्हें पाकिस्तान को दे दिया जाएगा लेकिन कांग्रेस ने यहां अपने घमंड को देश से ऊपर रखते हुए डॉ अंबेडकर ने जहाँ से चुनाव जीता था उन जिलों में 71% हिंदु आबादी होने के बावजूद पाकिस्तान को दे दिए। इतिहास में रूचि रखने वालों का मानना है कि “जवाहरलाल नेहरू ने अंबेडकर के पक्ष में वोट देने की सामूहिक सज़ा के तौर पर इन सभी चार ज़िलों को पाकिस्तान को दे दिया था.”
हालांकि तथ्य यह भी निकाले जाते हैं कि दलितों के बड़े लीडर मुस्लिम लीग से जुड़ने के चलते उनके प्रति कांग्रेस की सहानुभूति कम थी। डॉ अम्बेडकर पहले ब्रिटिश सरकार में मंत्री थे तब भी वे गांधीजी व कांग्रेस की आलोचना करने से नहीं चूकते थे और अब मुस्लिम लीग का सहारा लेकर चुनाव जीते हैं। तकनीकी रूप से भी तथा प्रामाणिक रूप से भी अब डॉ अंबेडकर पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बन गए और भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई जबकि डॉ अम्बेडकर पाकिस्तान जाने के समर्थन में नहीं थे।
पाकिस्तान बनने के साथ ही बंगाल अब विभाजित हो गया था और डॉ अम्बेडकर पाकिस्तान नहीं गये तब कांग्रेस को और खलबली मच गई। संविधान सभा के लिए पश्चिम बंगाल में नए चुनाव किए जाने थे। जब यह स्पष्ट हो गया कि अंबेडकर अब संविधान सभा में नहीं रह सकते तब उन्होंने सार्वजनिक स्टैंड लिया कि वो संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाएंगे। क्योंकि उनकी चिंता दलितों को लेकर थी सत्ता, धर्म को लेकर नहीं। वे अंग्रेजी हुकूमत में दलितों के लिए लड़े, कांग्रेस और संविधान सभा में भी यही मकसद था।
इसके बाद ही कांग्रेस आलाकमान ने मजबूरन या कुछ अन्य वजह से पता नहीं लेकिन उन्हें जगह देने का फ़ैसला किया। इस बीच बॉम्बे के क़ानून विशेषज्ञ एम.आर.जयकर ने संविधान सभा से इस्तीफ़ा दे दिया था जिनकी जगह को जी.वी.मावलंकर ने भरा। कांग्रेस का इरादा था कि मावलंकर को संविधान सभा का अध्यक्ष तब बनाया जाएगा जब 15 अगस्त 1947 से यह भारत के केंद्रीय विधायिका के तौर पर काम करने लगेगा लेकिन फिर कांग्रेस पार्टी ने फ़ैसला किया कि जयकर की खाली जगह अंबेडकर भरेंगे।
जोगेंद्र नाथ मंडल ने मुस्लिम लीग की तरफ से भारत विभाजन के वक्त एक अहम किरदार निभाया था। बंगाल के कुछ इलाके जहाँ हिन्दू (जिसमें दलित भी शामिल हैं) और मुसलमानों की आबादी समान थी वहां पाकिस्तान या हिंदुस्तान में शामिल होने हेतु चुनाव करवाए गए। इन इलाकों को पाकिस्तान में शामिल करने हेतु जरूरी था कि सारे मुसलमान और हिंदुओं-, दलितपिछड़ी जातियां पाकिस्तान के पक्ष में वोट करें! जिन्ना ने इसकी कमान जोगेंद्र नाथ मंडल को सौंपी। “पाकिस्तान में दलितों के हितों का सबसे अधिक ध्यान रखा जाएगा” इस तरह के मंडल के बयानों ने पिछड़ी जातियों के वोटों को पाकिस्तान के पक्ष में कर लिया और इस तरह जोगेंद्र नाथ मंडल की सहायता से जिन्ना ने भारत कुछ हिस्से को पाकिस्तान के नक्क्षे में समाहित कर लिया।
बहरहाल, हमें सबसे पहले यह मानना व समझना होगा कि यदि जोगेंद्रनाथ मंडल ने मुस्लिम लीग और अंबेडकर का हाथ ना थामा होता तो भारत की और भारत के संविधान की तस्वीर कुछ यूँ ना होती जैसी आज है। लेकिन हमने जोगेंद्रनाथ मंडल जैसे व्यक्ति को भी खो दिया। आगे चलकर डॉ अंबेडकर ने अपने ही राजनीतिक गुरु जोगेंद्रनाथ मंडल से किनारा कर लिया। बँटवारे के बाद मंडल भी एक बड़ी दलित आबादी लेकर पाकिस्तान चले गए। जिन्ना ने भी मंडल के कर्ज को उतारते हुए उन्हें पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री का पद दे दिया। उन्हें लगने लगा कि “अब पाकिस्तान ने विस्थापित हुए दलितों के लिए अच्छे दिन आ गए.” लेकिन यहीं से अब हुआ इसके कुछ उल्टा।
भारत और पाकिस्तान दो देश बनने के बाद जोगेंद्रनाथ मंडल पाकिस्तान के कानून मंत्री और डॉ अम्बेडकर भारत के कानून मंत्री बने।
डॉ अम्बेडकर निःस्वार्थ भाव से उसी काम में लगे जिस काम हेतु वह सरकारों में पहले सम्मिलित हुये थे। दलितों की बेहतरी, महिलाओं की स्थिति में सुधार, देश को नई ऊंचाई देना इत्यादि लेकिन जोगेंद्रनाथ मंडल वहां सत्ता सुख भोगने तक सीमित रहे। जबतक जिन्ना जीवित थे तबतक सब ठीक ही रहा लेकिन उसके बाद कट्टरपंथीयों ने अपना फन उठाना शुरू किया।
गांधी, पटेल, जिन्ना सब जल्दी ही मृत्यु को प्राप्त हो गये और दोनों ही देशों में आजादी या बंटवारे के बाद अधिक नहीं चली। अधिंकाश फैसले बहुसंख्यकों की इच्छाओं पर हुये चाहे वह रियासतों का विलय हो, संसाधनों का बंटवारा हो, समुदायों की हिस्सेदारी हो या फिर कानून बनाने की प्रक्रिया हो। भारत में अल्पसंख्यक अधिक थे और बहुसंख्यक भी उदारवादी थे इसलिये इसका थोड़ा लाभ अवश्य मिला लेकिन पाकिस्तान को इसमें खुली छूट मिली। उसने अपनी मनमानी की। धर्मनिरपेक्षता को दरकिनार करके खुले तौर पर इस्लामी राष्ट्र की वकालत की।
जोगेंद्रनाथ मंडल और अन्य नेता बिल्कुल ही निष्क्रिय पड़े रहे। वहां अल्पसंख्यकों पर हमले, शोषण, बलात्कार बढ़ गये। पाकिस्तान का अब भविष्य ही कुछ नहीं था बस वह अल्लाह भरोसे हो गया। जब 8 अक्टूबर 1950 की रोज जोगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के मंत्री-मंडल से त्याग पत्र देकर भारत आने की बात कही तो पाकिस्तान का एक उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष बेड़ा उन्हें गद्दार कहने लगे। इससे कट्टरपंथियों का भी हौसला बड़ा। वहां का दलित वर्ग भी असमंजस में पड़ गया। लेकिन उनका पाकिस्तानी मोहभंग भारत के कट्टरपंथियों के लिये मिसाल बन गई। वे हर मौकों पर जोगेंद्रनाथ मंडल का उदाहरण देने लगे।
जबकि इधर डॉ अम्बेडकर ने भारत में हर मोर्चे पर सरकार को घेरा। दबाव बनाया, रणनीति तैयार की। एक से बढ़कर एक कानून बनाये। वे आधे सफल हुए लेकिन आधे वे भी हार गये। उनका भी भारत सरकार से मोहभंग हुआ था और 27 सितंबर 1951 उन्होंने भी नेहरू मन्त्रमण्डल से इस्तीफा दे दिया था। अन्याय मंडल के साथ ही नहीं अम्बेडकर जी के साथ भी हुआ मगर उनके पास छोड़ने को कोई देश नहीं था इसलिये सत्ता व धर्म का ही त्याग कर दिया।
हिन्दू और मुस्लिम आबाद हुये, सशक्त अल्पसंख्यक जैसे सिख, बौद्ध, जैन, पारसी इत्यादि भी सफल हुये लेकिन दोनों देशों में दोनों नेताओं और उनकी जनता के साथ खास न्याय न हुआ। पाकिस्तान में तो कतई न्याय न हो सका। बस शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो” के नारे के साथ जद्दोजहद आज भी जारी है लेकिन डॉ अम्बेडकर लोगों को यह संदेश जरूर दे गये कि “हम शुरू में भी और अंत में भी भारतीय हैं” “We are Indian. Firstly and lastly”.
आर पी विशाल ।