भारतीय लोकतंत्र में जनता से उसके सारे हथियार छीने जा रहे हैं

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भारतीय लोकतंत्र में जनता से उसके सारे हथियार छीने जा रहे हैं
आपको जो भी नागरिक अधिकार मिले हैं, वे लोकतंत्र की दो तीन सदी की यात्राओं का परिणाम हैं । अगर उन अधिकारों को छीनने के बारे में कोई सोच रहा है । तो समझिए कि वह आपको तीन सौ साल पीछे ले जाना चाहता है ।




दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस मुरलीधर के साथ जो किया गया था, अब गुजरात हाईकोर्ट में जस्टिस जेबी पारदीवाला और आईजे वोरा की बेंच के साथ वही किया गया । जो आरटीआई कानून के साथ किया गया, वही न्यायपालिका के साथ किया जा रहा है ।
भारतीय लोकतंत्र में जनता से उसके सारे हथियार छीने जा रहे हैं । लड़ाई लड़कर जो आरटीआई ​कानून पास हुआ था, उसे संशोधित करके कमजोर कर दिया गया । न्यायपालिका, मीडिया, विपक्ष सबको कमजोर किया जा रहा है. लोग यह समझने की हालत में नहीं हैं कि इन संस्थाओं का कमजोर होना जनता की लोकतांत्रिक ताकत का कमजोर होना है ।




सरकारें अक्सर जनता के विरुद्ध काम करती हैं, जनता के अधिकारों का दमन करती हैं । इसे बहाल करने में जनता के ​पास कुछ लोकतांत्रिक हथियार होते हैं । संविधान में दिए गए नागरिक अधिकार, विपक्ष, न्यायपालिका और मीडिया जो नागरिक अधिकारों के तहत ही काम करता है ।
दिल्ली दंगे के समय क्या हुआ था, याद करें. तीन दिन तक दिल्ली जल रही थी । हर जगह से रिपोर्टर एक ही बात दोहरा रहे थे कि इलाके में दंगाइयों को खुली छूट है. पुलिस गायब है । मानवाधिकार की एक वकील ने हाईकोर्ट में आपात याचिका डाली. रात को 12 बजे अदालत बैठ गई और अगले ​दिन तक तीन बार सुनवाई की. पुलिस को जम कर लताड़ लगाई. पूरा सिस्टम सक्रिय हो गया । हेल्पलाइन नंबर जारी हो गया. मदद को पुलिस पहुंचने लगी. केंद्र, राज्य, पक्ष, विपक्ष सब हरकत में आ गए. डोभाल, केजरीवाल, कांग्रेसी सब मार्च करने लगे. हिंसा बंद हो गई ।




जस्टिस मुरलीधर ने असल में वह काम किया, जो अदालत का काम है । उनके संज्ञान लेेते ही न सिर्फ हिंसा रुकी, बल्कि उन्होंने भड़काऊ भाषणों को खिलाफ एक्शन ना लेने पर पुलिस की जमकर मजम्मत की और बीजेपी के अनुराग ठाकुर, परवेश वर्मा और कपिल मिश्रा पर एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया । लेकिन अगले ही दिन जस्टिस मुरलीधर का ट्रांसफर का आदेश जारी हो गया. वकीलों के विरोध के बावजूद के यह ट्रांसफर टाला नहीं ​गया ।
अब यही गुजरात में हो रहा है । हाईकोर्ट की एक बेंच कोविड-19 से संबंधित जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी । एक डाक्टर ने बेंच को गुमनाम पत्र लिखा और बेंच ने उसका संज्ञान लेकर आदेश जारी किया । अदालत ने सरकार को जरूरी कदम उठाने के लिए निर्देश दिए । अदालत ने सरकार की लापरवाही पकड़ी. प्राइवेट अस्पतालों को दिए जा रहे मुनाफे और उनके हितों को संरक्षित करने की चोरी पकड़ी ।




जस्टिस जे बी पारदीवाला और आई जे वोरा की बेंच ने जनता और डॉक्टरों के हित को देखते हुए आदेश पारित किए. सरकार असहज हुई और इस बेंच में बदलाव कर दिया गया । जस्टिस आईजे वोरा को इस बेंच से हटा दिया गया. उनकी जगह चीफ जस्टिस ने ली. अब जस्टिस जेबी पारदीवाला इस बेंच में सीनियर नहीं होंगे । गुजरात के 44 गणमान्य नागरिकों ने इस बारे में गुजरात हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को पत्र लिखा है कि आप अपने फैसले पर पुनर्विचार करें ।
गुजरात के अस्पतालों में मरीज बिना जांच और बिना इलाज के मर रहे हैं । सरकार मीडिया और न्यायपालिका मैनेजमेंट में लगी है । जो मरीज बिना इलाज के मर गए, उनकी जगह किसी दिन आप होंगे । इस बारे में आपको चिंता करनी चाहिए कि लोकतंत्र तमाम सारी स्वतंत्र संस्थाओं से बनता है । ये संस्थाएं खत्म हो जाएंगी तो लोकतंत्र अपने आप खत्म हो जाएगा ।
-लेखक स्वतंत्र पत्रकार कृष्ण कांत के निजी विचार है



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