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अजब गज़ब

उलेमाओं के नाम भारतीय मुस्लिम का खुला ख़त

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क्या आपको इसकी हालत पर तरस नहीं आता? सोचीए…सोचीए….. सोचीए…।
उलेमाओं के नाम भारतीय मुस्लिम का खुला ख़त
हर दौर में इस्लाम दबे कुचले लोगों के फलसफे के रुप में उभर कर सामने आया। हर उस शख्स के आंसू इस्लामने पोछे जिसपर जुल्म हुआ था। जब युनान कि सरजमीं अपने ही इन्सानी उसुलों को भुल चुकी थी, इस्लामी फलसफे के कई उलमाओं ने सरजमीं ए युनान को इन्सानी अहसासात के लिए झिंझोडा था। स्पेन में इन्सानियत को कालिख पोछा गया तो इस्लाम ही था, जिसने इन्सानों कि खुदी को ललकारा था। चंगेज खान जैसा शैतानी शख्स जिसने बगदाद में लाशों के ढेर बिछा दिए, उलमाए दिन कि ही यह मेहनत थी की, उनकी नसल में इस्लामी फलसफे और महरुमीन ए आलम के हक में कई इमाम खडे  हुए। 

जब हिंद की सरजमीं में इस्लामने कदम रखा तो यही उलेमा थे जिन्होने इस्लामी फलसफे के इन्सानी उसुलों से महरुमीन ए हिंद को वाबस्ता कराया। शेख अहमद सरहिंदी से लेकर मौलाना अशफाक सानी और मौलाना शिबली से लेकर मुन्शी जकाउल्लाह तक आपही थे, जिन्होने इस्लाम के खिलाफ चल रही कॉलनल(नाओ आबादी) साजीशों का पर्दाफाश किया। याद किजीए उस तारीख को जिस वक्त इस्लामी सियासी फलसफा दम तोड रहा था, तो उलमाही थे जिन्होने अजीम कुर्बानियों से इस मुल्क की गोद भर दी थी। लाहोर से लेकर दिल्ली कि गलीयों तक पेडों पर आपही की गर्दने लटकी हुई थी, जो चिख चिख कर शोहदा ए इस्लाम की तारीख कि तरफ कौम के जहन को मोड रही थी। इसी शहादत कि तारीख ने इस्लाम और उसकी कौम की बुनियादें हमेशा मजबूत की हैं। 

मगर अफसोस, सालों बित चुके हैं, उलमाओं कि  कौम की फिक्र को देखकर, सालों बित चुके हैं- उलमाओं कि कौम ए इस्लाम के मुतआल्लिक मोहब्बत देखकर, सालों से यह कौम मुंतज़ीर हैं, यह कौम उलमाओं में से दुबारा मोहम्मद हुसैन आझाद, मौलाना युसुफ, मौलाना अश्रफ अली थानवी, मौलाना मौदुदी, मौलाना आझाद, मौलाना शिबली नोमानी, मौलाना सुलैमान नद्वी, मौलाना इक्बाल हुसैन अलीगडी, मौलाना मुमताज अली, मौलवी जकाउल्लाह  कि कयादत को देखना चाहती हैं। यह कौम तहरीक ए आझादी के तारिख को दोहराना चाहती है, यह कौम आपकी कुर्बानियों की तारीख को याद करके आंसू बहाती है। 


यह कौम अपनी तहजीब को दम तोडता देख कर तडप रही है। यह कौम इस्लामी इन्सानी उसुलों की अहमीयत आपकी जुबान से सुनने के लिए बेचैन है। यह कौम जुमा के खुत्बों में अपने बुजर्गों की कुर्बानियों, तारीख ए इस्लाम में मेहनतकश तबके के हुकुक की जंग, महरुमीन ए इन्सानियत के हक में छेडा गया जेहाद, खवातीने ए इस्लाम कि खिदमात, इल्मी इंकलाब कि इस्लामी तारीख सुनने के लिए बेचैन है। हमारे मआशरे का बिगाडा गया किरदार और उसकी हकीकत से यह कौम जुड़ना चाहती है। आखिर क्यों आपको खुत्बे में कौम ए मुस्लिम की तारीख और उसके अहसासात का वजूद नहीं। सालों से आपके खुत्बे नाखून काटने, कपडे पहनने, खाने पिने के आदाब तक सिमटे हुए हैं। आखिर आप लोग क्यों हुकुक उल अल्लाह के साथ हुकुक उल इबाद के फराईज कौम को नहीं बताते। आखिर क्यों आप लोग अपनीही भूख की लडाई में हार रहे हो। आखिर क्यों आप लोग कौम को गुमराही की जिंदगी जिते देख बेचैन नहीं होते। दो चार जलसे या रॅलियां आपका समाजी फर्ज जरीया बनी हुई हैं।   आप क्यों इस कौम की कुव्वतों को दम तोडता देख रहे हैं। 

यह कौम हैरान है उलमाओं की खामोशी पर, हां आप खामोश थे गुजरात के वक्त, हां आप खामोश रहे इल्म कि दुनिया में इस्लाम की बदनामी के वक्त, हां आप खामोश हैं आज जिसवक्त आपही के मआशरे का किरदार बिगाडा जा रहा है। आपकी जुबान खामोश है, आपने कलम से आखिर क्यों रिश्ता तोडा हुआ है? जिस कलम से आपने गजाली, रुमी, रश्द, खल्दुन जैसे फलसफी पैदा किए वह कलम आपने क्यों छोड दि? क्या आपने कभी कौम को  खल्दून का फलसफा जुमा के खुत्बे में बताया? क्या आपने कौम को कभी कॅपिटलिज्म(सरमाया दारी) के खिलाफ इस्लामी उसुलों को बताया? क्या आप कभी मजदुरों के हक में इस्लामी उसुल जो शरीयत में बताए गए हैं आपने कौम को सिखाए? 

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क्या आपने हजरत निजामुद्दीन, हजरत नसिरुद्दीन चराग, ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की तारीख कौम को सुनायी? क्या आपने बंदानवाज के तसव्वुफ के मलफुजात कभी पढे, कभी उनकी दावत ए इस्लाम की तहरीक से कौम को वाबस्ता कराया? क्या आपने कभी हजरत राजू कत्ताल को अपने खुत्बों में याद किया? क्या आपके खुत्बे में कभी इस्लामी फलसेफे  के फलसफीं और उनकी जिंदगीयों कि कहानीयां और कुर्बानियां शामील थी? क्या यह हमारे बुजुर्गों से हमारी गद्दारी नहीं है? क्या आपने कभी अपनेही कौम के मर्दो की इस्लाह कि कोशीश कि? क्या हम खवातीन के हुकुक से गाफील नहीं है? क्या हमारे मर्दों ने गलत तरिखे से तलाक नहीं दिए? 
जागीए यह कौम सिसक रही है, आपके जज्बे और कुर्बानियों कि मुंतजीर खडी है, इसी कौम के चौदा- पंधरा साल के बच्चों को शैतानी झुंड अपना निशाना बना रही है, उठीए उन बच्चों की सिसकीयों को सुनिए, याद किजीए आसिफा को, याद किजीए अखलाक को, याद किजीए पहलू देखीए क्यों मारा गया मोहसीन वजह क्या थी उसकी? फिर सोचीए हम हमारी तहजीब की मआशरे की बदनामी ना सहते, हम इस्लामी फलसफे से हिंद की कौम को वाबस्ता कराते, तो क्या मोहसीन की मां की गोद उजडती? क्या शाहीद आजमी को  शहादत देनी पडती? 

उठीए अपने इदारों से निकलकर बाहर आईए, अपने कौम की हालत को जानिए। मोमीनों की बस्तीयों में गरीबी में दम तोडता बचपन आप अमीरों की इस्लाह कर उनके जकात से बचा सकते हैं। आप दुबारा इस कौम को उठ खडा कर सकते हैं, हां आपही कर सकतें हैं। इस सुस्ती को छुडीए, बेगानगी से नाता तोडीए। अल्लाह के लिए लिडरशीप की हवस को छोड कुर्बानियों लिए खडे हो जाईए, यह कौम आपका हाथ थामना चाहती है, अपने लडखडाते कदम संभालना चाहती है। वह मिटना नहीं चाहती, वह जिना चाहती है। क्या आपको इसकी हालत पर तरस नहीं आता? सोचीए…सोचीए….. सोचीए…।
खुदा हाफीज
-लेखक सरफराज अहमद (सोलापुर महाराष्य्र निवासी जानेमाने इतिहासकार है)

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