1991 के तथाकथित ग्लोबलाईज़ेशन के बाद अमेरिकन एजेण्ट मनमोहन सिंग के इशारों पर बड़े बड़े लेख लिखे जाने लगे कि चूँकि अफ़सरों/ MLA/ MP/ जजों/ सरकारी करमचारियों की तनख़्वाह कम है इसलिए भ्रष्टाचार होता है इसलिए तत्काल प्रभाव से इनकी तनख़्वाह को तीन चार गुना कर दिया गया ताकि ये विदेशी गाड़ियाँ/सामान ख़रीद सकें।
ईस तनख़्वाह बढ़ने का यह फ़ायदा हुआ कि जनता से लूटा जाना वाला रुपया यानि भ्रष्टाचार बहुत ज़्यादा बढ़ गया और इंडिया में विदेशी सामान की खपत भी।
क्या सरकार आम जनता को श्वेतपत्र पेश करके समझायेंग़ी कि इतनी तनख़्वाह सुविधाएँ बढ़ने के बाद भ्रष्टाचार क्यूँ नहीं रुका?
क्या सरकार बताएगी कि उसने तनख़्वाह बढ़ाने के निबन्ध लिखने के वक्त जनता को यह क्यूँ नहीं बताया कि शक्ति के चन्द हाथों में केन्द्रित होने से भ्रष्टाचार बढ़ा है और सरकार सभी पदों की ताक़तों को कम करके सत्ता को आम जनता में विकेंद्रित करना चाहती है।
सरकार जनता को साफ़ साफ़ बताये कि वह किसके एजेण्डे पर काम कर रही है क्यूँकि सरकार का हर कदम जनता के हितों के ख़िलाफ़ होता है इसलिए यह तो सच है कि सरकार जनता के लिये काम नहीं कर रही है।
जवाब देना होगा। जनता जवाब माँगती है।
– लेखक सतीश कालेर के निजी विचार