सचिन और सिंधिया भारतीय राजनीति में अपरिपक्व, लोभी, स्वार्थान्ध विश्वासघात के प्रतीक माने जाएंगे
सचिन और सिंधिया भारतीय राजनीति में अपरिपक्व, लोभी, स्वार्थान्ध और विश्वासघात के, न कि विद्रोह’ के, प्रतीक माने जाएंगे। ‘न घर के और न घाट’ के राजनीति के ये घोड़े भारतीय प्रजातंत्र को विद्रूप स्वरूप देने वाले कुल-पुरुष प्रजातंत्रीय समाज के विकास में बड़े बाधक है। ये पूंजीवादी नव सामंतवाद के वाहक है।
वैसे सचिन को अपनी इज्जत बचाने की कोशिश करनी चाहिए। कांग्रेस, जैसा उसका स्वभाव है, नाकाबिल और चमचों को ही आगे बढ़ाती है। कांग्रेस के लिए व्यक्ति के बाप का बहुत महत्व है। खुद भी बाप बनती है औऱ जिनको टिकट देती है उनका बाप अगर कांग्रेस में था तो यह सबसे बड़ी योग्यता मानी जाती है और बहुत से योग्य अभ्यर्थियों को दरकिनार कर उसको वरीयता दे दी जाती है। सचिन इसी रास्ते से कांग्रेस में आया।
लेकिन अब वह बच्चा नहीं रहा। बड़ा हो गया। वह हक मांगता है। ऐसा हक जिसका वह हकदार नहीं है। उसको यह समझ में नहीं आएगा। कांग्रेस और बीजेपी प्रभु जातियों की राजनीति खेलती रही है। यह प्रभू राजनीति का ही प्रभाव है कि बीजेपी और कांग्रेस के अध्यक्ष जाट बने। परंपरागत प्रभु जाति ‘राजपूत’ इन पार्टियों में तंबूरे बजाने से ज्यादा महत्व नहीं रखती है, क्योंकि वह इसी में खुश है कि उसकी जाति का इतिहास लंबे समय तक राज करने में रहा है और बस आज के शासक उस के झूठे सच्चे गीत गाते रहे।
जिस तरह से जाट और गुजर आदि जातियों के नेता दूसरी जातियों को सामाजिक रूप से अपने साथ ले लेती है, वैसी कूवत राजपूत राजनेताओं में नहीं है, इसलिए वे हाशिये में चले जाते है और कभी बीजेपी के तो कभी कांग्रेस के कारिंदे बन जाते है। उनका मतलब अपने से ही होता है।
जिन राजपूतों के पास अपनी जमीन और जायदाद भी नहीं थी वे भी अपने को बड़ा राजा मानकर खुद को व दूसरों को धोखा देते हुए राजनीति में मार खाते रहते है। भैरोसिंह इस बुराई को समझ सके इसलिए उस पर पार पाकर मुख्यमंत्री बने। बाकी के लोग महाराणा प्रताप, पदमिनी आदि में ही व्यस्त रहना चाहते है। वे राजनीति के अफीम में डूब चुके है।
-ताराराम गौतम