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भंवर मेघवंशी की पुस्तक ‘मैं एक कार सेवक था’ मूलतः हिंदी में लिखी हुई पुस्तक है। यह आंग्ल भाषा में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से भी उपलब्ध है और पाठकों द्वारा सोशल मीडिया पर न केवल इस पुस्तक की समीक्षा लिखी जा रही है, बल्कि पाठक अपना मनोगत भी लिख रहे है।
छोटे-बड़े अखबार और पत्र-पत्रिकाओं में भी न केवल पुस्तक पर टिप्पणियां की जा रही है, बल्कि लेखक के सारगर्भित साक्षात्कार भी छप रहे है। वे सब आनंददायक है व पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता प्रदान करने वाले है, इस बात में कोई दो-राय नहीं हो सकती है, परंतु इतनी चर्चित पुस्तक होने बावजूद और मीडिया द्वारा इसे प्राथमिकता देने के बावजूद भी जिस संगठन और जिसके बारे में लिखा गया है, उनका कोई व्यक्तव्य न तो सोशियल मीडिया पर देखने को मिला और न इन पत्र-पत्रिकाओं में, जबकि उनकी फौज के सिपाही हर कोने और हर गवाक्ष पर मौजूद है। वे हर मुद्दे पर जरूर कूद पड़ते है, फिर इस पर प्रतिक्रिया क्यों नहीं दे रहे है। शायद वे भी आनंदित है और मौन होकर आनंद ले रहे है । उनका यह मौन समझ से परे है।
एक किसी का लिखा जरूर पढ़ा था, जिसमें कुछ प्रतिक्रिया थी। उस महाशय का मुझे अभी नाम याद नहीं आ रहा है। उसने भी थोड़ी बहुत लीपा-पोती करके छोड़ दिया। उस में मेघवंशी द्वारा भोगे गए उन मुद्दों का कोई जबाब नहीं दिया गया और न ही उन मुद्दों को गलत ठहराया गया, जो मेघवंशी ने पुस्तक में उठाये है।कम से कम स्वयंसेवकों को इसकी चीरफाड़ तो करनी चाहिए, परंतु कोई आगे आने का साहस तक नहीं कर रहा है। मेरी नजर में उनका यह मौन विरोध का एक तरीका है। अब आप समझ लीजिए कि इस पुस्तक के दूरगामी प्रभाव को रोकने में मौन कितना सहायक होता है—–!
वे प्रभाव को तौल रहे है, हम प्रसार को। प्रसार को प्रभावी बनाने का कोई रास्ता खोजिए नहीं तो यह पुस्तक बेस्ट सेलर होने के बावजूद भी नैपथ्य में चली जायेगी, जैसा कि समय-समय पर कई कृतियों के साथ हुआ है। इससे कोई संवाद पैदा होना चाहिए, परन्तु आरएसएस ने इस पर संवेदनहीनता का रुख अख्तियार कर लिया। कोई आरएसएस का बन्दा या उसका प्रेमी/हितैषी हो तो इस पर चर्चा करे, सभी को लाभ होगा। कम से कम मुझे तो होगा। मैं उस चर्चा में अपने को सरीक कर ज्ञानार्जन ही करूंगा तो आइए उन मुद्दों पर चर्चा की जाए।
-Tararam Gautam