जंगलों से निकल कर हमनें सभ्यताएँ बसा ली और हम सभ्य हो गए! आज तक हम कितने सभ्य हुए हैं कुछ कह नहीं सकते! विकसित होने की दौड़ में हम चाँद पर तो पहुँच गए, तारों, गैलेक्सी, पिंडों, ब्लैक होल इत्यादि को बड़ी अच्छी तरह जानने समझने लगे!
इतिहास के पन्नो को खरोच खरोच के पढ़ डाला पर सीखने की कोशिस नहीं कि सिर्फ पढ़ा! इस धरती पर न जाने कितनी सभ्यताएँ आयी और चली गई, बुरे से बुरे दौर से गुजरी जघन्य से जघन्य अपराधों से लिप्त थी! अपने बर्चस्व को बनाये रखने के लिए अपने ही लोगों को गुलाम बना डाला फिर चाहे वो स्त्री हो या पुरुष बाज़ारो में सब बिके!
समय बिता तो हमने आदर्शों और खोखले विचारों मान सम्मान की हजारों किताबें लिख डाली और छाती से चिपकाए घूमने लगे! अब हमें स्त्री को बराबर का दर्जा देना था तो उसे भी हमनें किताबों में लिख डाला कि कितनी इज्जत देनी है, पर बदलाव कुछ भी नहीं हुआ! पुरुष गुलामी से आज़ाद तो हो गया पर स्त्रियाँ कभी नहीं हो पाई!
खोखले आदर्शों ने हम पुरुषों के चेहरों पर नकाब लगाया है! अंदर से आज भी वही जानवर हैं! जिसे माँस खाने की आदत है फिर चाहे वो जानवर की हो या किसी इंसान का! बाजारवाद की विकसित होने की नीतियों ने स्त्री को विलासिता की वस्तु बना डाला और स्त्री भी उसे अपनी तरक्की समझती है! और आखिरी लाइन समाज का सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क समाज के बुद्धजीवियों ने किया है ?