– विजय कुमार
नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023: महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था
महिला आरक्षण के लिए 128 वां संविधान संशोधन विधेयक
महिला प्रतिनिधित्व: एक सकारात्मक पहल
राज्यसभा में महिला प्रतिनिधित्व
महिला प्रतिनिधित्व: राजनीतिक दलों के लिए चर्चा का मुद्दा
समय के साथ राजनीतिक परिवर्तन
महिला प्रतिनिधित्व: स्थानीय स्तर से लोकसभा तक
महिलाओं का सामाजिक और राजनीतिक प्रतिनिधित्व
आरक्षित सीटों का रोटेशन प्रक्रिया
ओबीसी प्रतिनिधित्व और नई चुनौतियाँ
रोटेशन की चुनौतियाँ
ओबीसी प्रतिनिधित्व: नई चुनौतियाँ
नारी शक्ति वंदन विधेयक का निष्कर्ष
महिला आरक्षण के लिए 128 वां संविधान संशोधन विधेयक
नारी शक्ति वंदन अधिनियम 20 सितम्बर, 2023 को लोकसभा से पारित हो गया। विधेयक के समर्थन में 454 मत पड़े जबकि विरोध में 2 सांसदों ने मत दिया। नई संसद भवन में शुरू हुई पहले दिन कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने महिला आरक्षण से जुड़ा विधेयक सदन के सामने पेश किया था। इस विधेयक में लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण देने की व्यवस्था की गई हैं।
महिला प्रतिनिधित्व: एक सकारात्मक पहल
महिला आरक्षण के लिए लाया गया 128 वां संविधान संशोधन विधेयक हैं। वर्तमान में लोकसभा में 543 सीटों में 78 महिलाएं हैं जो लगभग 15% से कम हैं। वहीं राज्यसभा में 14% महिला सदस्य हैं जो बेहद कम संख्याबल को दर्शाता है। संसद में महिला आरक्षण विधेयक का लाया जाना एक सकारात्मक पहल हैं। यह भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन में एक अकल्पनीय योगदान देगा। लोकतांत्रिक राजनीति में प्रतिनिधित्व की ठोस व्यवस्था करना नेतृत्व की क्षमता के साथ-साथ स्वनिर्णय लेने की शक्ति उपलब्ध करता हैं। राजनीतिक स्तर पर बहस के दौरान आने वाले समय में क्या बदलाव होंगे और क्या निर्णय लिये जाएंगे। इसपर बात करना सुलभ नहीं होता, लेकिन यह वर्तमान केन्द्र सरकार का महत्वपूर्ण निर्णय है और प्रत्येक लैंगिक समानता में विश्वास में विश्वास करने वाले राजनीतिक दल को सहमति-असहमति पर चर्चा करते हुए विधेयक का सम्मान करना चाहिए। यह बात संभवतः सदन की कार्यवाही के दौरान पक्ष-विपक्ष की तरफ से पूरी भी हो गई।
महिला प्रतिनिधित्व: स्थानीय स्तर से लोकसभा तक
73 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1993 में स्थानीय स्वशासन में विभिन्न स्तरों पर पंचायत स्तर और उनके प्रमुख दोनों पर 33% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई। इसके माध्यम से देश में सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में संतुलन आये। वर्तमान समय की बात की जाय तो देश के लगभग 70% महिलाओं को निर्णय देने के क्रम में उनके पति, भाई, पिता जैसे घर के पुरुष सदस्यों द्वारा सहयोग किया जाता है। लेकिन इसके अतिरिक्त लगभग 30% महिलाएं भी जो अपने से फैसला कर लेती है तो भविष्य सकारात्मक दिशा में है। क्योंकि आने वाले दिनों में यह प्रतिशत और गति से बढ़ेगा। वर्तमान में पारित हुए विधेयक में प्रावधान है कि लोकसभा, राज्यों की विधानसभा और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की विधानसभाओं में एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए सुरक्षित रहेगी। इसका मतलब यह हुआ कि 543 लोकसभा की सीटों में से महिलाओं के लिए 181 स्थान सुरक्षित होगी। वर्तमान समय लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए 131 सीटें आरक्षित हैं। महिला आरक्षण कानून बन जाने के बाद इनमें 43 सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित रहेगी। इससे स्पष्ट होता है कि आरक्षित 181 सीटों में से 138 ऐसी होगी जिनपर किसी भी जाति की महिला को प्रतिनिधित्व बनाया जा सकता है। विधेयक के अनुच्छेद 334ए में कहा गया है कि आरक्षण उद्देश्यों को पूरा करने के लिए परिसीमन प्रक्रिया शुरू होने के बाद लागू होगा, जिसके लिए जनगणना जरूरी है। लेकिन परिसीमन और जनगणना की तारीखें अब तक निश्चित नहीं है। यह प्रक्रिया 2029 में भी पूरी होने की संभावना नहीं हैं।
आरक्षित सीटों का रोटेशन प्रक्रिया
वर्तमान में 543 सदस्यों वाली लोकसभा में ओबीसी प्रतिनिधित्व की बात की जाय तो इसकी संख्या सिर्फ 120 (22.09%) है। जबकि जनसंख्या लगभग 52% है। इसके विपरीत सवर्ण हिंदू जातियों के 232 (42.7%) लोकसभा सांसद सदस्य हैं। संविधान के लागू होने के समय से ओबीसी यानी अन्य पिछड़े समुदाय से आने वाले राजनीति सहित समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपना जगह पाने के लिए कठिन प्रयास किया है। लोकसभा चुनाव 2004 में ओबीसी का प्रतिनिधित्व 26% पर पहुंच गया और उसके बाद से गिरावट आ रही है। महिला आरक्षण विधेयक में ओबीसी कोटा न देना न केवल प्रतिनिधित्व के लिए उनके ऐतिहासिक संघर्ष को नजरअंदाज करती है बल्कि आजादी के बाद से उनके द्वारा प्राप्त की गई तरक्की को भी कमजोर करती हैं। ओबीसी आरक्षण के बिना यह जोखिम है कि इस विधेयक से चुनी गई महिलाएं असमान रूप से विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि से आ सकती है जो पहले से ही सत्ता के असमान वितरण को खराब कर देगी। इसमें एक ऐसा परिदृश्य बन सकता है जहां महिलाओं का एक चुनिंदा समूह, मुख्य रूप से उच्च जाति और आर्थिक रूप से सम्पन्न पृष्ठभूमि से राजनीतिक स्थानों पर हावी हो जाएगा, जिससे सकारात्मक कार्रवाई का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। ओबीसी के साथ सभी हासिए पर रहने वाले समुदायों के हितों को ध्यान में रखते हुए व्यापक और समावेशी कानून की वर्तमान पुनरावृत्ति, इस महत्वपूर्ण उद्देश्य को दरकिनार करके, भारत की राजनीति में वास्तव में परिवर्तनकारी और न्यायसंगत शक्ति निर्माण की अपनी क्षमता से कम है।
ओबीसी प्रतिनिधित्व: नई चुनौतियाँ
अन्य स्थायी कमियाँ के तौर पर देखा जाए तो नारी शक्ति वंदन विधेयक (महिला आरक्षण विधेयक) में कह गया है कि प्रत्येक परिसीमन प्रक्रिया के बाद आरक्षित सीटों को रोटेशन द्वारा आवंटित किया जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि लगभग 10 वर्ष में रोटेशन कर नई सीट आरक्षित की जाएगी। क्योंकि 2026 के बाद हर जनगणना में परिसीमन जरूरी है। आरक्षित सीटों को घूमने से सांसदों या विधायकों के लिए अपने निर्वाचन क्षेत्रों के लिए कार्य जारी रखने का हौसला कम हो सकता है। क्योंकि वे उस निर्वाचन क्षेत्र से फिर चुनाव मैदान में उतरने के लिए अयोग्य हो सकते हैं। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि 128 वां संविधान संशोधन विधेयक द्वारा लाए गए महिला आरक्षण विधेयक लैंगिक समानता की दिशा में एक सकारात्मक प्रभाव और महत्वपूर्ण कदम है, जबकि यह स्वीकार करना जरूरी है कि इसका वर्तमान ढाँचा अन्य पिछड़े समुदाय के हितों को नजरअंदाज करता है।
– विजय कुमार
छात्र झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय, रांची
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