Connect with us

Current Affairs

“जय भीम” संघर्षो से ध्यान भटकाने का एक प्रयास

Published

on

SD24 News Network – “जय भीम” संघर्षो से ध्यान भटकाने का एक प्रयास

          “जय भीम” फ़िल्म आजकल चर्चाओं में है। जो भी इस फ़िल्म को देख रहा है। वे सब अपने-अपने अंदाज में फ़िल्म की समीक्षा लिख रहे है। 
          संसोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियां जिनको किसी फिल्म में बस लाल झंडा दिख जाए या किसी दीवार पर पोस्टर या दराती-हथौड़ा का निशान दिख जाए, बस इसी बात से वो फ़िल्म को कम्युनिस्ट फ़िल्म घोषित कर देते है। इस फ़िल्म को देख कर भी ऐसे कम्युनिस्ट लोट-पोट हो रहे है। इस फ़िल्म को संशोधनवादी कम्युनिस्टों ने बेहतरीन फ़िल्म बताया है वहीं कुछेक कम्युनिस्टों ने इसकी सार्थक आलोचना भी की है। 
          इसके विपरीत लाल झंडा देखकर ही बिदकने वाले या डॉ अम्बेडकर के नाम को सिर्फ जपने वाले इस फ़िल्म के खिलाफ ही बात कर रहे है। उनको इस फ़िल्म की कहानी पर चर्चा करने की बजाए आपत्ति इस बात से है कि पूरी फिल्म में डॉ अम्बेडकर की न कही फोटो है, न अम्बेडकर पर चर्चा है। इसके विपरीत कम्युनिस्टों के झंडे है, लेनिन है, मार्क्स है लेकिन कहीं भी अम्बेडकर नही है। इसलिए ये सब फ़िल्म के खिलाफ खड़े है। इनका फ़िल्म निर्माता पर ये आरोप की फ़िल्म का नाम “जय भीम” सिर्फ लोकप्रिय नारे “जय भीम” को भुनाने के लिए रखा गया है। मूर्खता की चरम सीमा है।
जय भीम संघर्षो से ध्यान भटकाने का एक प्रयास

          फ़िल्म की कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है। यह फिल्म 1993 में हुई सच्ची घटना से प्रेरित है। इरुलर जनजाति के राजाकन्नू नाम के एक व्यक्ति को चोरी के झूठे मामले में फंसाया जाता है। फ़िल्म दक्षिण भारत की ‘इरुलर’ जाति के उन आदिवासी लोगों की कहानी कहती है जो चूहों को पकड़कर खाते हैं। मलयालम में इरुलर का शाब्दिक अर्थ “अँधेरे या काले लोग” है। वास्तव में यह मामला कोरवा जनजाति के लोगों के पुलिस द्वारा किए गए उत्पीड़न का था।
          पीड़ित की पत्नी सेनगेनी वकील चंद्रू के पास मदद के लिए जाती है और पुलिस हिरासत में दी गई यातना चंद्रू के लिए एक चुनौतीपूर्ण और ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई बन गई। चंद्रु बाद में मद्रास हाई कोर्ट के जज भी रहे। मद्रास हाईकोर्ट ने इस केस का फैसला 2006 में सुनाया था। 
          “जय भीम” का फिल्माकंन व एक्टिंग काबिले तारीफ है। फ़िल्म को 4.5 स्टार रेटिंग मिली है। फ़िल्म में दिखाया गया अमानवीय अत्याचार जो आम आदमी के रोंगटे खड़ा कर देता है। लेकिन असलियत जिंदगी में सत्ता, पुलिस व तथाकथित उच्च जातियों ने सदियों से गरीब, दलित, आदिवासियों पर अत्याचार किये है व वर्तमान में भी ये अत्याचार जारी है। फ़िल्म देख कर जिस दर्शक के रोंगटे खड़े हो रहे है। जब उस दर्शक के इर्द-गिर्द अत्याचार हो रहे होते है, उस समय उसको ये अत्याचार कभी नही दिखायी देते है। बस फ़िल्म में ही दिखाया जाए, तभी ये अत्याचार उसको दिखायी देते हैं। 
          अगर दर्शक को असलियत सिस्टम के ये अत्याचार दिखते तो सोनी सोरी दिखती, तेजाब से जलाया उसका चेहरा दिखता, अनगिनत आदिवासी महिलाएं दिखती, जिनकी फोर्स के जवानों ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी या जेलों में डाल दिया। हजारो आदिवासियों के सलवा जुडूम के गुंडों द्वारा जलाए गए मकान दिखते, फोर्स द्वारा आदिवासियों का हर रोज होता जन संहार दिखता, पुलिस लॉकअप में होते बलात्कार दिखते, हर रोज देश के किसी न किसी थाने के लॉकअप में पुलिस द्वारा की गई हत्या दिखती, हरियाणा के मिर्चपुर व गोहाना की वो दलित बस्ती दिखती, जिसको जातिवादी गुंडों ने जला दिया था। लेकिन आपको ये सब नही दिखेगा क्योकि आपको अत्याचार बस तब दिखता है जब कोई फिल्मकार उसको आपके सामने पर्दे पर पेश करे। पर्दे पर दिखाए अत्याचार को देख कर आप थोड़े भावुक होते हो, ये ही आपकी असलियत है।

फ़िल्म इस दौर में कहना क्या चाहती है… 

          फ़िल्म निर्माता ने फ़िल्म का नाम “जय भीम” बड़े ही शातिराना तरीके से रखा है। किसी भी मुल्क में न्याय प्रणाली का चरित्र मुल्क में स्थापित सत्ता के चरित्र जैसा होता है। जैसी सत्ता वैसी ही न्याय प्रणाली
          भारत की न्याय प्रणाली का चरित्र भी भारतीय सत्ता के चरित्र जैसा ही अर्ध सामंती-अर्ध पूंजीवादी है। सत्ता अगर थोड़ी सी प्रगतिशील होती है तो न्याय प्रणाली भी प्रगतिशील दिखती है। वर्तमान में सत्ता धार्मिक फासीवादी है तो न्याय प्रणाली का भी चरित्र धार्मिक फासीवाद है। 
          भारत मे न्याय प्रणाली किसी भी दौर में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, गरीब व महिला हितैषी नही रही। यहाँ सामंती जातिय सेनाओं ने अनेको बार दलितों की बस्तियां जलाई, नरसंहार किये। आदिवासियों, कश्मीरियों, असमियों के साथ जो अमानवीयता भारतीय सत्ता व उसकी फॉर्स द्वारा की जा रही है लेकिन कभी सुना है, जालिमो को सजा हुई हो। कभी सुना है भारतीय न्याय प्रणाली ने इंसाफ किया हो। भंवरी देवी बलात्कार केस, उतर प्रदेश, बिहार में जातीय सेनाओं द्वारा किये जनसंहार, बुटाना, सोनीपत की दलित लड़की जिनको पुलिस के दर्जनों जवानों ने अवैध हिरासत में रख कर बलात्कर किया इस सब पीड़ित इंसाफ की एक झलक देखने की लालसा में जवान से बूढ़े होकर मर गए लेकिन इंसाफ की झलक नही दिखी। 

मुल्क की वास्तविक स्थिति बहुत ही डरावनी है। 

          मुल्क की जेलों में कुल 4.66 लाख कैदी है जिनमें से 1.56 लाख OBC, 96,420 दलित, 53916 आदिवासी कैदी है। मुल्क के जेलों में 2 तिहाई कैदी OBC, दलित व आदिवासी है वही 19 प्रतिशत मुस्लिम कैदी है।
पुलिस लॉकअप में हुई हत्याएं इससे भी डरावनी है।
          नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCBR) की वार्षिक अपराध (CII) की 2001 से 2020 तक कि रिपोर्ट के अनुसार बीते 20 सालों में पुलिस हिरासत में 1888 मौतें हुई। इन मौतों के खिलाफ पुलिस कर्मियों के खिलाफ 893 मामले दर्ज हुए और सिर्फ 358 पुलिसकर्मियों के खिलाफ चार्ज सीट दायर की गई जिनमे से सिर्फ 26 कर्मियों को ही दोषी माना गया है। 
          क्या ये सब हमारे माननीय न्यायधीशों को नही दिखता। क्या वो ये क्राइम रिपोर्ट नही पढ़ते हैं। क्या उनको नही दिखता है कि भारत की जेलों में बहुमत दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक मुस्लिम ही क्यो है।
          वर्तमान दौर में जब भारत की न्याय प्रणाली से आम जनमानस का विश्वास उठता जा रहा है। 
आम आदमी जो मुल्क की स्वायत्त संस्थाओं CBI, ईडी से लेकर चुनाव आयोग पर अटूट विश्वास करता था। लेकिन मुल्क की सत्ता ने पिछले 10-15 सालों में जिस तरह से इनकी स्वायत्तता खत्म कर इनको अपना निजी तोता बनाया है। उससे आम जनता में इन स्वायत्त संस्थाओं ने अपना विश्वास खो दिया।  
          2014 के बाद केंद्र की सत्ता में विराजमान भाजपा जिसकी विचारधारा हिंदुत्त्ववादी फासीवादी है, वो जिस तेजी से मुल्क के लोकतंत्र को खत्म कर हिंदुत्वादी सत्ता की तरफ बढ़ रही थी। मुल्क की न्याय प्रणाली भी सत्ता के इस कार्य का विरोध करने की बजाए उसके इस घिनौने कार्य मे मर्जी या डर के कारण सांझेदार बनी गयी। न्याय प्रणाली के ऐसे आचरण के कारण ही जो विश्वास जनता का अभी तक बना हुआ था, पिछली सात साल के मोदी राज में न्याय प्रणाली द्वारा लिए गए प्रत्येक विवादित फैसलों से खत्म हो गया। 
          पिछले 2 साल में CAA, NRC व तीन खेती कानूनों के खिलाफ  हुए ऐतिहासिक जन आन्दोलनों को सत्ता ने जिस तानाशाही तरीके से कुचलने के प्रयास किये उस समय न्यायपालिका का चुप रहना, आम जनता के सामने नंगा होना ही था। 
          न्याय प्रणाली का चरित्र लोगो के सामने आ चुका है। ठीक उसी समय “जय भीम” फ़िल्म दर्शकों को पुलिस के अमानवीय कृत्यों को दिखाते हुए। दर्शकों की सहानुभूति लेती है, फ़िल्म दर्शक को भावनात्मक तौर पर पीड़ित के साथ जोड़ती है। लेकिन उस सहानुभूति व भावनात्मकता का फ़ायदा उठा कर फिल्मकार बड़े ही शातिराना तरीके से दर्शक को ये समझाने में सफल हो जाता है कि हमारी न्याय प्रणाली निष्पक्ष है। उसका चरित्र भारतीय सविधान के अनुरूप लोकतांत्रिक है। बस आपको अगर इंसाफ चाहिए तो आपको एक मजबूत वकील चाहिए। आपके वकील में मजबूत सबूतों के साथ तार्किक बहस करने की अक्षमता होनी चाहिए। फ़िल्म का मजबूत वकील पहली ही तारीख में जेलों में बंद 7 हजार निर्दोष आदिवासियों को छुड़ा देता है। पुलिस लॉकअप में हुई हत्या में जिसका फैसला 13 साल बाद आया था फ़िल्म का मजबूत वकील सिर्फ कुछेक महीनों में ही दोषियों को जेल में डलवा देता है व पीड़ितों को इंसाफ दिला देता है। 
          लेकिन जब फ़िल्म बन रही थी उसी समय भारत की न्यायालयों में स्टेन स्वामी का वकील न्यायधीश महोदय से जमानत की गुहार लगा रहा था, जमानत न मिले लेकिन सिर्फ स्टेन स्वामी की बीमारियों को देखते हुए न्यायधीश महोदय फादर स्टेन स्वामी को पानी पीने के लिए पाइप रख सके ऐसा आदेश दे दे। लेकिन स्टेन स्वामी जिसकी उम्र 83 साल थी न्यायधीश के न्याय के इंतजार करते-करते मर गया। 
          वरवरा राव, आनन्द तेलतुंबड़े, गौतम नवलखा, वकील सुधा भारद्वाज, वकील सुरेंद्र गाडलिंग, शरजील इमाम, प्रशांत राही, उमर खालिद, प्रोफेसर GN सांई व तमाम हजारों राजनीतिक बंधी भी स्टेन स्वामी की तरह न्याय के इंतजार में मुँह बाये खड़े है लेकिन न्याय तो मिलता नही बस हर बार मिल न्यायधीश महोदय की तरफ से मिल जाती है अगली तारीख 
हरियाणा से वकील राजेश कापड़ो जो दलित अधिकार कार्यकर्ता है। उनको दलितों के आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक मुद्दों पर लड़ने के कारण ही सत्ता ने 10 साल पुराने कत्ल के केस में आरोपी बना दिया। 
क्या इन सबके पास मजबूत सबूत पेश व तार्किक बहस करने वाला वकील नहीं होगा?
          अगर कोई न्यायाधीश महोदय ईमानदार बनने की कोशिश करता है तो वो या तो जज लोया बन जाता है या दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश महोदय जिसने
“CAA व NRC आंदोलन को खत्म करने के लिए दिल्ली में सत्ता द्वारा प्रायोजित दंगे करवाने वाले भाजपा के नेताओ अनुराग ठाकुर व कपिल मिश्रा के खिलाफ FIR के आदेश दिए। अगली सुबह सत्ता के दंगाइयों पर FIR तो नही हुई। न्यायाधीश महोदय का ट्रांसफ़र जरूर हो गया।”   
          ये हमारे मुल्क की कोरी सच्चाई है। लेकिन ये सच्चाई आप सबको नही दिखती है। आपको ये सच्चाई तब दिखती है जब कोई फ़िल्म निर्माता फ़िल्म में ये सब दिखाता है। 
         आप एक बार अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं पर नजर घुमाइए, उन घटनाओं को जानने की कोशिश कीजिये। उन घटनाओं में पीड़ितों के पक्ष में लामबद्ध हो कर इंसाफ के लिए सत्ता के खिलाफ संघर्ष कीजिये। जन आंदोलनों से ही अन्याय के खिलाफ जीत हासिल की जा सकती है। 

Uday Che

Continue Reading
Advertisement
2 Comments

2 Comments

  1. Track phone

    February 10, 2024 at 9:57 pm

    Mobile Phone Monitoring App – hidden tracking app that secretly records location, SMS, call audio, WhatsApp, Facebook, Viber, camera, internet activity. Monitor everything that happens in mobile phone, and track phone anytime, anywhere.

  2. Phone Tracker

    February 8, 2024 at 8:24 am

    How to track the location of the other person’s phone without their knowledge? You will be able to track and monitor text messages, phone calls, location history and much more. Free Remote Tracking and Recording of Husband’s Phone Cell Phone Spy. Best Apps to Download for Free to Spy on Another Phone.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *