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कुतुबुद्दीन अंसारी को याद करिए। 2002 के गुजरात दंगों में उनकी ये तस्वीर पूरी दुनिया ने देखी थी। वह हाथ जोड़कर पुलिसवालों से जान बचाने की भीख मांग रहे थे। उनकी इस तस्वीर को देखकर पुणे के एक हिन्दू ने कुतुबुद्दीन का पता लगाया। वह हिन्दू शख़्स उन्हें ढ़ूंढ़ते हुए अहमदाबाद तक आया।
जब कुतुबुद्दीन से उस हिन्दू शख़्स की मुलाकात हुई तो वह आदमी अपने पैरों से जूते निकालकर नंगे पैर खड़ा हो गया। उसने कुतुबुद्दीन के सामने हाथ जोड़कर रोते हुए पूरे हिन्दू समुदाय की तरफ से माफी मांगी। उस भले व्यक्ति ने कहा कि कोई भी इंसान जान नहीं ले सकता है। जो जानवर होते हैं वही जान लेते हैं।
दंगा किसी आपदा की तरह आता है और अपने साथ अंतहीन दर्द छोड़ जाता है। चंद दिनों में हज़ारों-लाखों लोगों की दुनिया, ख़्वाब, अरमान सब टूट-बिखर जाते हैं। आम आदमी तबाह और बर्बाद होता है, जबकि दंगे के बड़े-बड़े खिलाड़ियों के आलीशान बंगले और महल बनते हैं।
मेरी मज़बूरी है कि मैं दंगा प्रभावितों की मदद नहीं कर पा रहा हूँ। सरकार में नहीं हूँ कि लोगों का दुख-दर्द बांटने पहुंचने जाऊं। पुलिस वाला भी नहीं हूँ कि दंगाईयों को खदेड़ सकूँ। एक मज़बूर साधारण आदमी हूँ, लोगों से शांति की अपील ही कर सकता हूँ।