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यह न्यू इंडिया है. यहां सरकार ऐसी नीतियां बनाती है जिससे तबाही आती है, लेकिन न उन मौतों का कोई लेखाजोखा रखा जाता है, न कोई जिम्मेदारी लेता है.- सीतेश आजाद
ऐसी कम से कम तीन घटनाएं हुईं जिनमें लोगों को मरने के लिए लावारिस छोड़ दिया गया. पहला नोटबंदी कांड, दूसरा पीएमसी बैंक घोटाला और अब तीसरा है सीएए.
नोटबंदी के दौरान कितनी मौतें हुई थीं, यह जानकारी देश को नहीं दी गई. सरकार ने संसद में इसकी जानकारी देने से मना किया. PMO के मुख्य जनसूचना अधिकारी फरवरी, 2019 में केंद्रीय सूचना आयोग के समक्ष दावा किया कि उन्हें नोटबंदी से हुई मौतों की जानकारी नहीं है.
दिसंबर, 2018 में संसद में यह मसला उठा तो वित्त मंत्री रहे अरुण जेटली ने राज्यसभा में कहा कि उपलब्ध सूचना के मुताबिक नोटबंदी के दौरान भारतीय स्टेट बैंक के तीन अधिकारी और इसके एक ग्राहक की मौत हुई थी. मीडिया रिपोर्ट्स में नोटबंदी के चलते लाइन में लगकर सौ से लेकर 200 के बीच अलग अलग दावे किए गए. यह मीडिया संस्थानों की अपनी रिपोर्ट और अपना आकलन था.
पीएमसी बैंक डूबा तो उसके खाताधारकों द्वारा अपना ही पैसा निकालने पर प्रतिबंध लग गया. लोगों की जीवन भर की कमाई डूब गई. किसी की अस्पताल में पैसे के अभाव में मौत हुई, किसी की सदमे से मौत हुई. 1012 तक मीडिया ने गिनती की फिर छोड़ दिया. सरकार ने इस पर मुंह तक नहीं खोला. बजट में कहा गया है कि पांच लाख तक की गारंटी देंगे. अब अगर आप बुढ़ापे के लिए पैसा बचा रहे हैं तो मत बचाइए. बैंक में पैसा जमा करेंगे और डूब जाएगा तो गारंटी सिर्फ पांच लाख की है. जो व्यक्ति 60 साल तक देश की सेवा करेगा, सरकार उसकी पेंशन भी खतम करेगी और बचत डूब जाने को प्रोत्साहित करेगी.
अब सीएए जैसा नागरिकता कानून आया है जो अंग्रेजी राज की याद दिलाता है. इस काननू के आने के बाद से ही पूर्वोत्तर लगातार अस्थिर है. देश भर में उपद्रव हुआ.
23 फरवरी को पूर्वोत्तर में हुई मौतों के बारे में हमने लिखा था. अंग्रेजी अखबार ‘द टेलीग्राफ’ के मुताबिक, पिछले संसद सत्र के दौरान केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने राज्यसभा में बताया था कि “असम के छह डिटेंशन सेंटर में 988 ‘विदेशियों’ को रखा गया है. इन कैंपों में 28 लोगों की मौतें हुई हैं, लेकिन ये मौतें किसी उपचार की कमी, दबाव या डर के चलते नहीं हुई हैं, बल्कि बीमारी की वजह से हुई हैं.”
अखबार के मुताबिक, मानवाधिकार समूह सिटीजन फार जस्टिस का आंकड़ा है कि इस नागरिकता कानून के चलते, अलग अलग वजहों से, 100 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. कुछ की कैंप में मौत हुई, कुछ ने आत्महत्या कर ली. हाल ही में जब कानून पास हुआ, उसके बाद यूपी और पूर्वोत्तर में हुए हिंसक प्रदर्शनों के दौरान करीब 25 लोगों की मौत हुई. मीडिया रिपोर्ट्स में कहा गया कि् अधिकतर मौतें पुलिस की गोली से हुई हैं. इसी कानून के चलते दिल्ली में प्रदर्शन हो रहे थे जिसे बीजेपी ने अपने स्तर पर खत्म कराने का अभियान छेड़ा और नतीजतन दिल्ली में दंगे हुए. मीडिया में 49 मौतों तक का आंकड़ा आया है. कांग्रेस के सुरजेवाला 52 मौतों का दावा कर रहे हैं.
अगर असम से लेकर दिल्ली तक की सभी मौतों का यह फौरी आंकड़ा देखें तो कुल संख्या करीब पौने दो सौ बैठती है.
क्या इस महान लोकतंत्र में इतनी भी शर्म नहीं बची है कि इन निर्दोष लोगों की मौतों की कोई जिम्मेदारी ले ले? क्या लोगों को मरने के लिए लावारिस छोड़ दिया गया है? यह याद रहे कि चाहे सरकार का कहर हो, चाहे पुलिस की गोली हो, चाहे दंगाइयों की गोली, सब के सब सिर्फ गरीबों की जान लेते हैं.
कोई अमीर आदमी न नोटबंदी में मरा, न पीएमसी घोटाले में मरा, न पुलिस की गोली से मरा, न सीएए के चलते सदमे से मरा, न दंगाइयों की गोली से मरा. यह सारा प्रपंच गरीबों की जान लेकर अमीरों की सत्ता बनाए रखने के लिए रचा जाता है.
आपके देश में एक ऐसी सरकार चल रही है जो अपने कारण हुई मौतों की जिम्मेदारी तक लेने से इनकार करती है.
(-लेखक सीतेश आजाद के निजी विचार)
(-लेखक सीतेश आजाद के निजी विचार)