-निधी साहू
मानव सभ्यता की शुरुआत मातृसत्तात्मक व्यवस्था के साथ हुई क्योंकि किसी भी नस्ल को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी प्रकृति ने मादा को दी है जो कि इस पृथ्वी पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।
जब तक मनुष्य प्रकृति के बनाए नियमों का इमानदारी से पालन करता रहा तब तक मातृसत्तात्मक व्यवस्था अक्षुण रही जैसे-जैसे मानव प्रकृति से दूर हुआ वैसे वैसे ही उसने प्रकृति के नियमों को छोड़कर अपने बनाए नियमों का पालन करना शुरू किया,यहीं से मातृसत्तात्मक व्यवस्था का क्षरण शुरू हुआ।
अब अपने देश की बात की जाए तो हमारे देश के कर्मशील समाज में महिलाएं पारंपरिक व्यापार और कामों में पुरुषों के बराबर योगदान करती थीं, घरों में कुटीर उद्योग के रूप में चलने वाले कामों पर तो महिलाओं का पूरी तरीके से नियंत्रण होता था जैसे मिट्टी के बर्तन बनाना, कपड़ा बुनना, कोल्हू चलाना, लोहारगिरी का काम इत्यादि।
इस ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवार के अर्थ-अर्जन में महिलाओं की बराबर भागीदारी थी,धन पर नियंत्रण होने से परिवार के द्वारा लिए जा रहे निर्णयों में भी महिलाएं बराबर की साझीदार हुआ करती थी, जिससे महिलाओं की स्थिति समाज में सम्मानजनक थी।
भारत में कंपनीवाद के मजबूत होने के साथ-साथ ही हमारे कुटीर उद्योग व पारंपरिक काम-धंधे हमसे छिनना शुरू हुए, जिससे धन से महिलाओं का नियंत्रण खत्म होना शुरू हुआ और महिलाओं की स्थिति दिन प्रतिदिन खराब होती चली गई। महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाओं में गुणात्मक रूप से वृद्धि हो रही है, महिला सशक्तिकरण कार्यक्रमों का फायदा मात्र कुछ शहरी महिलाओं को ही मिल पाता है।इस आर्थिक विपन्नता का सबसे बड़ा दुष्परिणाम महिलाओं को उठाना पड़ा है।
लेकिन आज भी जहां महिलाएं व्यापार और काम-धंधे को संभाल रही हैं वहां उनकी स्थिति समाज में सम्मानजनक और मजबूत है इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारे देश का पूर्वोत्तर क्षेत्र है। आदिवासी समुदाय में भी महिलाओं की स्थिति बाकी के समाज की तुलना में बेहतर है उनको व्यक्तिगत निर्णय लेने की छूट आज भी उपलब्ध है,क्योंकि आदिवासी समुदाय आज भी प्रकृति के बनाए नियमों का पालन करता है।
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